ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, January 11, 2025

'अयन्नार देव लोक' में समाई कला सुगंध

पत्रिका, 11 जनवरी, 2025

भारतीय कलाएं लोकोन्मुखी है। लोक में जो कुछ व्याप्त है, कलाओं ने उसे ही रूपायित किया है। सिंधु घाटी की सभ्यता, कालीबंगा की खुदाई में मिट्टी की गाड़ी, खिलौनों का अपूर्व संसार मृण—मूर्तियों की सुंदर दृष्टि से ही तो हमें जोड़ता है। इतिहास जहां पहुंच नही पाता, वहां लोककलाओं का संसार हमें पहुंचाता है। इसलिए लोक में ही हमने सदा आलोक की राह तलाशी है। 

कुछ दिन पहले ग्वालियर जाना हुआ तो वहां 'अयन्नार देव लोक' के बहाने मृण—शिल्प की हमारी विरल विरासत से साक्षात् हुआ। लगा, प्रचार—प्रसार और व्यावसायिकता की दृष्टि से परे लोक—कला की हमारी समृद्ध थाती से नई पीढ़ी को जोड़ने की यह महती पहल है। लोक कलाओं के संरक्षण की उम्मीद जगाने वाली भी। 

तमिलनाडु के लोक—पूजित ग्राम देवता है—अयन्नार। अयन्नार शब्द अय्या शब्द से उपजा है। माने वह जो श्रेष्ठ—सम्मानित हो। दक्षिण भारत के गांवों में अयन्नार के मंदिरों में उनकी और उनके पूरे कुटुंब, साथियों की घोड़ों या हाथियों पर सवार मूर्तियां प्राय: मिलती हैं। क्रोधी संरक्षक रूप में अय्यनार तांत्रिक प्रतीकात्मकता में भैरव के संग भी होते हैं। कहीं—कहीं उनके साथ उनकी दो पत्नियाँ—पुराणा और पुष्कला भी मूर्तियों में मिलती है। ग्राम देवता के मंदिर के बाहर प्राय: उनके और टेराकोटा के घोड़ों को रखा जाता है। मंदिरों में रखे जाने वाले यह घोड़े इतने सुंदर होते हैं कि अयन्नार बहुत से स्थानों पर पीछे छूट गए, यह घोड़े जग—भर में व्याप्त हो गए। पर आईटीएम विश्वविद्यालय ग्वालियर और बड़ौदा में थंगैय्या आर. और  साथी कलाकारों ने अयन्नार और उनके कुटुम्ब संग सप्त मातृकाओं का भी अलंकृत पर सुहाने शिल्प का संसार रचा है। 

अयन्नार और उससे सबद्ध दूसरे मूर्ति—शिल्प में मिट्टी की कारीगरी संग धैर्य की जरूरत होती है। मिट्टी का चयन, उसे पकाने की प्रक्रिया और फिर उससे आकृतियों का लोक रचने में रमना पड़ता है। कलाकारों को यदि इस—सब में सृजन की छूट मिले तो वह अद्भुत—अपूर्व रच सकते हैं। सुधि चिंतक और आईटीएम के संस्थापक कला—रसिक रमाशंकर सिंह ने इसे संभव किया है। मृदा—शिल्प कलाकारों के ग्राम देवता परिवार को मुश्ताक खान ने क्यूरेट किया है। ग्वालियर स्थित आईटीएम विश्वविद्यालय में ग्राम देवता रचने वाले कलाकारों द्वारा मिट्टी को गूंथकर, आकार देकर, और अंत में आग में पकाकर उसे पूर्णता देने बाद रंगालेप करते देख मृण शिल्प की भारतीय परम्परा से भी जैसे साक्षात हुआ। 

हमारे यहां लोक से जुड़ी ऐसी कलाओं की लूंठी परम्परा आरंभ से रही है। लोक देवता बाबा रामदेवजी राजस्थान ही नहीं देशभर में सर्व पूज्य हैं। कपड़े की कतरनों से उनके घोड़े बनते हैं। बाबा को अपना घोड़ा बहुत प्रिय था इसलिए इन्हें उन्हें अर्पित कर मन की मुराद पाने यह कला परवान चढ़ी। बांस, घास, और थर्माकोल की शीट से घोड़े बनते रहे हैं और फिर इन्हें सफेद और रंगीन कपड़े, माला, ऊन की झालर से सजाया जाता है। पीढ़ी दर पीढ़ी कलाकार घोड़ों की कलाकृतियों का यह संसार सिरजते आ रहे हैं। ऐसे ही गुरु गोरखनाथ के शिष्य गोगाजी  की आराधना में पत्थर या लकड़ी पर सर्प—मूर्ति ,  तेजाजी के घोड़े पर बैठे हुए, हाथ में तलवार और साँप पकड़े हुए का भी सुंदर संसार रचा जाता रहा है। देवनारायणजी और दूसरे लोक देवताओं, पाबूजी की पड़ के मोहक मृदा—शिल्प के लिए राजस्थान का मोलेला गांव तो विश्वभर में ख्यात है। मिट्टी की मूर्तियां अध्यात्म से ही नहीं जुड़ी मानव मन में शुभता—सुंदरता की सर्वत्र चाह से भी जुड़ी रही है।

देश-विदेश की कलादीर्घाओं में जाना होता रहा है। अचरज होता है कि वहां लोक कलाओं का सहारा लेते ही आधुनिकता का अपनापा रचा गया है। यह भी हर बार अनुभूत किया है, लोककलाएं जीवन में समाई सुगंध की व्यंजना है। साहित्य प्रत्यक्ष दृश्य नहीं है परन्तु लोक कलाओं में हम इतिहास को बांच सकते हैं। वासुदेव शरण अग्रवाल ने ठीक ही कहा है, जो शास्त्र लोक के साथ नही जुड़ा, वह बुद्धि का छलावा है।

 

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