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कुछ समय पहले गुलेर चित्रकला की दो कलाकृतियां मुम्बई में 31 करोड़ में खरीदी गई। इनमें एक अप्रतिम कलाकार नैनसुख की गीत—संगीत सभा विषयक और दूसरी उन्हीं की बाद के पीढ़ी के कलाकार की जयदेव के गीत गोविंद पर आधारित सिरजी कलाकृति है। एब्सट्रेक्ट कला के इस दौर में पारम्परिक भारतीय लघु चित्र कला की यह बाजार—मांग उम्मीद जगाने वाली है।
पारम्परिक भारतीय चित्रकलाएं रंग—रेखाओं की शैलीगत विशेषताओं से ही नहीं विषय—वैविध्यता में भी विरल है। वह विडम्बना ही रही है कि ब्रिटिश का से ही समकालीन विमर्श में पारम्परिक भारतीय कलाएं वैश्विक स्तर उपेक्षित प्राय: रही है। भारत से बाहर जब 'मुगल कला' को धर्म से जुड़ा बताते सुनता हूं तो इस बौद्धिक दरिद्रता पर तरस आता है। भारतीय कला मर्मज्ञ आनन्द केंटिश कुमारस्वामी कभी स्थापित किया था कि मुगल दरबारों में जो पनपी वही भारतीय कला—शैलियां है। मुगल कला का धर्म से कोई संबंध नहीं है। पश्चिम में आज भी भारतीय संगीत को “एथनो-म्यूजिकोलॉजी" कहा जाता है। माने उनका संगीत आधुनिक है और हमारा पारम्परिक। पश्चिम द्वारा कलाओं की विकसित की गई इसी हीन ग्रंथी ने वैश्विक स्तर पर हमारी कलाओं की समृद्ध परम्परा को प्रचारित नहीं होने दिया है। हमारे यहां कलाओं में मूत—अमूर्त का भेद कभी नहीं रहा है। भारतीय कलाओं में जितना बाह्य सौंदर्य महती है, उससे कहीं अधिक उनका आंतरिक पक्ष है। कलाओ में महत्वपूर्ण वही कहां होता है जो दिख रहा होता है, महती वह होता है जो दिखने के बाद मन में घटता है।
अभी कुछ दिन पहले ही डॉ. सुषमा महाजन की जल—रंग कलाकृतियों की प्रदर्शनी देखने का सुयोग हुआ। रंग, रेखाओं और टेक्सचर के सुगठित स्थापत्य में उन्होंने जैसे सौंदर्य का जीवन छंद रचा है। अंतर अन्वेषण में जेबरा, बंदर, गिलहरी, पक्षियों की विरल भात भांत की छवियां। एक कलाकृति में तीन घोड़ों के अलग—अलग रंगों में जीवन—गति है। हमारे यहां लोक देवताओं के घोड़ों को 'नीले घोड़े का असवार' कहा गया है। गूढ़ अर्थ है, नीला घोड़ा माने जो गति में आसमान से बातें करे। कलाओं में ही नहीं जीवन में भी कहन का यह गूढ़ पक्ष हमारे यहां महती रहा है। डॉ. सुषमा की कलाकृतियां रंग—संवेदना में प्रकृति में घुले रहस्यों से ही साक्षात नहीं कराती है, प्राचीन मंदिरों, पाषाण मूर्तियों और वास्तु—स्थापत्य को भी देखने का नया संस्कार देती है। हरेक कलाकृति में एक खास एकान्तिका है। कलाकार ने यहां उकेरे दृश्यों, स्थानों को देखा ही नहीं है, मानो पढ़ा है। कुछ इस तरह से कि वह स्थान फिर से हमारी स्मृति में सौंदर्य की एक नई दृष्टि प्रदान करता जीवंत हो जाए। कोणार्क के रथ मंदिर, बीकानेर की हवेलियों और पहाड़ों पर छाई बर्फ और पसरा मौन यहां दृश्य में जैसे ध्वनित है। उनकी सभी कलाकृतियों में रंग छंद सरीखे हैं।
जल—रंगों में उन्होंने ठौड़—ठौड़ स्मृति को जैसे जीवंत किया है। असल में यहां जितना दृश्य है, उतना ही उसमें निहित अदृश्य का मोटिफ है। मसलन गणेश की एक कलाकृति में दूर तक फैला गणेश का कान! रंग—रूप में स्वरों का उजास यहां है। गौर करेंगे तो पाएंगे ग्रामोफोन से निकलते मधुर स्वरों को यहां सुषमा जी ने रूपान्तरित कर दिया है। पारम्परिक मिनिएचर पेंटिंग, लोक कलाओं के प्रतीक—चिन्ह और मांडणे और उनमें समाई सुंदर संरचनाओं से सजा संसार लगभग सभी कलाकृतियों में यहां है। हाथियों की आकृतियां हैं तो सूखे पत्तों, रंगों के धूसर में पार्श्व की मोहक रंग—छटाओं में जीवन के गहरे अर्थ यहां उद्घाटित हुए हैं। कलाएं क्या है? सौन्दर्य का अन्वेषण ही तो! डॉ. सुषमा की कलाकृतियां प्रकृति और जीवन में घुली उत्सवधर्मिता का गान है। रूपकों की दृष्टि—बहुलता में प्रकृति और जीवन का रूपान्तरण! इन पर लिखते हुए पश्चिम की दृष्टि की बजाय भारतीय सौंदर्य—रस की रमणीय दृष्टि में ही जाना पड़ेगा। ऐसा करेंगे तभी अपनी कलाओं से अपनापा होगा। इनकी वैश्विक पहचान भी बन सकेगी।
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