ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Monday, January 20, 2025

भाव—भव में समाहित मार्धुय—छंद

संगीत संगीत क्या है? भाव—भव में समाहित मार्धुय—छंद ही तो! मुझे लगता है, सप्त स्वरों में लय की साधना है संगीत। मास्टर कृष्णराव फुलंब्रीकर को सुन—गुन यही सब मन में आता है। वह स्वर—सिद्ध गायक ही नहीं थे, भावों में गूंथी लय में संगीत को जैसे समझाते हैं। यह भी लगेगा, सहज, सरल और बहुत आसान लगने वाली धुनें उन्होंने सिरजी है, गायी है। पर, धैर्य—धर सुनें। पाएंगे अप्रचलित रागों में भी भावों की विरल सृष्टि उन्होंने की है। 

लता के गाए और उनके संगीतबद्ध 'कीचक वध' फिल्म के 'आज मिलन की रात है' गीत को ही सुनें। एक धुन में कितने—कितने भाव उन्होंने इसमें संजोए हैं! यह फिल्म 1959 में आई थी। मराठी में गीत लिखा था जी.डी.मडलुगर ने और हिंदी में पंडित भरत व्यास ने। संगीत दोनों का मास्टर कृष्णराव का है। सुनेंगे तो यह भी लगेगा वंसत देसाई, सी.रामचन्द्र, सुधीर फड़के आदि कितने ही संगीतकारों ने कितना—कुछ उनसे ही तो पाया है।

दैनिक जागरण, 20 जनवरी, 2025


 मास्टर कृष्णराव ने शास्त्रीय रागों के अप्रचलित को भी प्रचलित किया। स्वर—लय की लूंठी व्यंजना में अभंगों, प्रार्थनाओं व आरतियों के एक ही ढर्रे के संगीत की एकरसता को शास्त्रीय रागदारी के माधुर्य से जोड़ा। शास्त्रीय रागों को विशिष्ट रूप में उन्होंने गाया ही नहीं उनमें निहित भाव—सौंदर्य का आकाश रचा है। इसीलिए मराठी ही नहीं हिंदी और दूसरी भाषाओं में भी उनके गीत बेहद लोकप्रिय हुए, बहुभाषी बने। यह संगीत में विचार—उजास की उनकी दृष्टि ही है जिसमें अप्रचलित जोड़-रागों का विरल स्वर छलका है। तार षड्ज लगाकर ‘जोवन मद भर आई’ सोहनी राग की उनकी बंदिश हो या फिर राग शिवमत भैरव में 'आज मौजूद भये', अनवट राग—गांधारी में 'कन्हैया आवो रे',राग भटियार में 'रैन गई भई भोर' सुनेंगे तो संगीत की दृश्य सृष्टि से भी औचक साक्षात होंगे। 

राग मिश्र पहाड़ी में 'मुरली वाले तुम जवाब दो' सुनेंगे तो पता चलेगा एक ही बोल को कितने कितने रूपों में प्रकटा जा सकता है। मुझे लगता है, आलाप में अलहदा फक्कड़पन, गान की विरल सादगी और जटिल रागों का भी सहज सौंदर्यान्वेषण उनके संगीत की विशेषता है। कम से कम स्वरों और अनावश्यक सांगीतिक जटिलता से अपने को बचाते हुए मास्टर कृष्णराव ने भिन्न रागों की बारीकियों के समन्वय से बहुतेरे मधुर राग भी बनाए।  यह मास्टर कृष्णराव के ही प्रयास थे, जिससे बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के लिखे 'वंदे मातरम' को राष्ट्रगीत की स्वीकृति मिली। 

आरंभ में 'वंदे मातरम्' ही तो हमारा राष्ट्रगान बना था। लोकमान्य तिलक की तो इसमें इतनी श्रद्धा थी कि शिवाजी की समाधि के तोरण पर इसे उत्कीर्ण करवाया था। आजादी आंदोन में भी इसी गीत ने लोगों में निरंतर जोश भरा था पर आजादी बाद राष्ट्रगान बनने के विरोध के चलते कविन्द्र रवीन्द्र के 'जन गण मन' को राष्ट्रगान स्वीकारा गया। 'अंग्रेजो भारत छोड़ो' आंदोलन में मास्टर कृष्णराव ने मिश्र झिंझोटी राग में रचित धुन में इसे विधिवत प्रस्तुत किया। वह अपनी संगीत सभाओं का समापन भी इसी से करते थे। मन में एक मुहिम थी, इसे देश—गान बनाने की। सो संविधान सभा के सदस्यों के समक्ष इसे बार—बार उन्होंने प्रस्तुत किया। सराहना भी मिली। विरोध इस बात पर हुआ कि यह परेड में बजने योग्य नहीं है। 

मास्टर कृष्णराव ने इसके तीन सहज—सरल संस्करण तैयार किए। एक मार्च गीत रूप में, तीसरा नेताओं के स्वागत रूप में और तीसरा राष्ट्रगान रूप में। उनका सांगीतिक प्रदर्शन सबको भाया पर मुस्लिम विरोध की आवाजों में 'जन गण मन' राष्ट्रीय गान स्वीकारा गया। पर मास्टर कृष्णराव असफल नहीं हुए, उनके प्रयासों से ही बाद में 'वंदे मातरम' को राष्ट्र गीत की मान्यता मिली। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने बाद में उनसे ‘बुद्ध वंदना‘ को भी सांगीतिक संरचना में निबद्ध करने का अनुरोध किया। मास्टर कृष्णराव ने बगैर मानदेय बुद्ध वंदना को संगीतबद्ध किया। यह भी बहुत लोकप्रिय हुई। शास्त्रीय संगीत को लोकप्रिय करते, सुगम संगीत में शास्त्रीयता का रस घोलते वह सप्त स्वरों में लय का माधुर्य रचते। राग भैरवी में भी तो उन्होंने नए से नए पद, बंदिशें रच उन्हें इतना सुंदर स्वर दिया कि वह कभी ‘भैरवी सम्राट’भी कहाए। कितना—कुछ विरल है, संगीत का उनका माधुर्य और वैविध्य! लिखें तो शब्द कम ही पड़ेगें।

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