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| जागरण, 22 दिसम्बर 2025 |
सारंगी सौ रंगों से जुडा है। कुछ लोग संस्कृत शब्द “सारंग” से भी इसे जोड़कर देखते हैं। जो हो, सारंगी करूणा, प्रेम, वात्सल्य, स्नेह, रूदन के साथ जीवन के तमाम रसों का नाद करने वाला तत्वाद्य है। सुनेंगे तो लगेगा ध्वनियों का रस बरस रहा है। मानव कंठ सरीखा आलाप वहां है तो मींड और गमक भी है। कंठ से जो सधे, सारंगी उसे सजाए। राजस्थानी लोकवाद्य ‘रावणहत्था’ भी कुछ कुछ सारंगी सरीखा ही है। सारंगी कभी कोठों में बजती थी। पर, इसे कोठों की पहचान से शास्त्रीय रंगों में किसी ने साधा तो वह पंडित रामनारायण रहे हैं। पंडित रामनारायण की सारंगी बजती नहीं, गाती है। उनसे निकट का नाता रहा। जब भी मिले सारंगी के रस माधुर्य का नया कुछ सौंपा। ठुमरी के बोल की आवृतियां करती उनकी सारंगी। उल्टे-सीधे, छोटे-लम्बे गज! तानों में एक साथ कई सप्तकों की सपाट तान। सच! उनकी सारंगी सदा दृश्य भाषा रचती। ठुमरी ही नहीं राग जोगिया में वह असार संसार का सार समझाते। राग मुल्तानी, किरवानी, मिश्र भैरवी और राग बैरागी भैरव! अतृप्त प्यास जगाते हैं, सारंगी के उनके सुर। सब कुछ पा लेने के मोह से मुक्त ही तो करता है उनका सारंगी नाद!
उदयपुर में वह
जन्में और फिर बाद में
मुम्बई में ही बस गए।
उस्ताद अमीर खाॅं,
गंगूबाई हंगल, पंडित
ओंकारनाथ ठाकुर, केसर
बाई, बड़े गुलाम
अली खां के साथ उन्होंने
सारंगी संगत की।
यहूदी मेनुहिन, पैब्लो
कासाल्स और रास्त्रोपोविच
के साथ विश्वभर
के मंचों पर
उन्होंने सारंगी की
प्रस्तुतियां दी। वह
नहीं होते तो सारंगी कब
की अतीत बन हमसे विदा
ले चुकी होती।
पिता नाथूजी बियावत
दिलरूबा बजाते पर
पंडितजी ने सारंगी
अपनायी। वर्ष 1956 में
पंडितजी ने मुम्बई
के संगीत समारोह
में पहली बार
एकल सारंगी वादन
किया। बस फिर तो देश-विदेश में
उनकी सारंगी गाने
लगी। सारंगी के
सुरों की वर्षा
पहले पहल फिल्मों
में उन्होंने ही
की।
याद करें ‘कश्मीर
की कली’ का
‘दिवाना हुआ बादल...’
गीत। गीत की धुन में
सारंगी के सुर क्या लाजवाब
सधे हैं! बीन
अंग आलाप के साथ मन्द्र
सप्तक से लेकर अतिसार सप्तकों
तक वह सारंगी
की सदा बढ़त
करते। उदयपुर से
मुम्बई, लाहौर रेडियो
स्टेशन पर स्टाफ
आर्टिस्ट के रूप
में कार्य करने
और फिर कोठों
से निकालकर सारंगी
को शास्त्रीयता की
पवित्रता के साथ
स्थापित पर उनसे एक दफा
संवाद हुआ तो कहने लगे,
‘सारंगी कोठों में
कैद थी। बाहर
तब बजती भी कहां थी!
नृत्यांगनाओं के नृत्य
मे ंप्रयुक्त संगीत
के वाद्यों से
निकाल एकल इसे बजाने की
कार्यक्रम किए। फिल्मों
में इसीलिए बजाया
कि इसे मान मिले। संकट
बहुत आए, परवाह
नहीं की।" पंडितजी
ने 1944 में रेडियों
आर्टिस्ट के रूप
में ऑल इंडिया
रेडियो में स्टाफ
आर्टिस्ट बने। पर
वहां कार्यक्रम करने
को नहीं मिलता।
मिलता तो कार्यक्रम
काट दिया जाता।
उन्होंने सारंगी को
ही अपने को समर्पित कर दिया।
उनके प्रयास रंग
लाए, सारंगी जन
मन में बसने
लगी।
सारंगी में गज
का संतुलन उन्होंने
ही पहले पहल
समझाया। उनकी सारंगी
बजते सौ रंगों
की बरखा ही तो करती
है, विश्वास नहीं
है तो सुनें।
मन करेगा, गुनें।
गुनते ही रहें।
वह नहीं हैं,
पर सारंगी की
उनकी दी सौगात
स्वरों की हमारी
थाती है।

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