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| अमर उजाला, 25 अक्टूबर 2025 |
पीयूष पाण्डे नहीं रहे, पर भारत में विज्ञापन को जन-मन से जोड़ने की दृष्टि और संस्कार के वह उन्नायक बने। लोक से जुड़े भावों को शब्दों में गूंथते उन्होंने भारतीय संस्कृति में घुले जीवन व्यवहार को विज्ञापन साम्रगी बनाने की विरल पहल की।
विज्ञापन क्या है? जन-मन को लुभाने से जुड़ा ज्ञान ही तो! वस्तु, सेवा, उत्पाद और विचार से जुड़ी यह वह कला है जिसमें संदेश को
विशेष ढंग से संप्रेषित कर इच्छित परिणाम प्राप्त किया जाता है। पीयूष पांडे का
विज्ञापन कहन ऐसा ही था। जन मन में सहज बसने वाला। समाज से जुड़ी परम्पराओं,
रीत-रिवाज, रिश्ते-नातों की गहरी
अन्तर्दृष्टि उनमें थी। इसीलिए उनके विज्ञापन बोल निरंतर लोगों को आकृष्ट करते रहे
हैं। वह अपने आस-पास के परिवेश को सुंघ लेते थे। फिर उसमें शब्दों की सुगंध घोल
इच्छित परिणाम देने के लिए लक्षित समूह को उकसाते थे। ’अबकी बार मोदी सरकार’,
यह फेविकोल का ’अटूट बंधन’
है, कैडबरी का ’कुछ खास
है’, एशियन पेंट्स का ’हर
खुशी में रंग लाए’ विज्ञापन सहज-सरल इसलिए मन को भाते हैं कि इनमें कहीं कोई
बनावटीपन नजर नहीं आता। लोक से जुड़ा आलोक है। माने जिस तरह से लोग सोचते हैं,
विचारते हैं-उसे ही उन्होंने
शब्द दे दिए। यह इसलिए जुबान पर चढे कि छांदिक हैं। कविता की लय और जीवन से जुड़ी
सुगंध कहन में यहां समाई है।
पीयूष पाण्डे ने विज्ञापन के लिखे वाक्यों को दृश्य संस्कार दिए। उनके
छोटे-छोटे वाक्य इसलिए सुहाते हैं कि वहां पर कहन-कोलाज है। थोड़े में बहुत सारा।
गागर में सागर। रिश्ते-नातों और परम्परा का उजास है। कथा का कोई सूत्र है।...और यह
ऐसे ही नहीं होता है, इसके लिए जीवन से जुड़े मूल्यों में रच-बसना पड़ता है।
याद है, अरसा पहले आर.के.
लक्ष्मण से लम्बा संवाद हुआ था। मेरा प्रश्न था, आप आम आदमी से इतने घुलते-मिलते नहीं है फिर भी
आपका कॉमन मैन हर घटना का बेबाक गवाह कैसे होता है? उनका जवाब था, मैं आम आदमी से मिलता-जुलता नहीं हूं पर उन्हें
समाचार पत्रों में, टीवी चैनलों में और किताबों-कहानियों में पढ़ लेता हूं। मुझे लगता है, पीयूष पाण्डे ने विज्ञापन की
दुनिया में यही किया। उनके विज्ञापन संसार में जाते बार बार यह अनुभूत होता है,
वह आम आदमी से जुड़े जीवनगत
सरोकारों पर पैनी नजर रखते थे। व्यक्ति को, परिवार को, संस्थाओं को पढ़ते थे और फिर उसे अपने विज्ञापन में
गुनते-बुनते थे। यही कारण है, विज्ञापन के उनके वाक्य सीधे सरल, पर मन में गहरे तक बसते हैं। कहन की जीवंतता वहां है। याद
करें, पल्स पोलियों के लिए
उनका दिया वाक्य, ’दो बूंदें जिन्दगी की’। पढेंगे, सुनेंगें तो लगेगा-अरे! यह तो बहुत आसान है। पर, यह सरलता पीयूष पाण्डे के
सृजन का बड़ा हासिल है।
पीयूष पाण्डे पश्चिम का अंधानुकरण नहीं कर भारतीय परिवेश में झांकते थे। बाहर
का नहीं देखकर अंदर को तलाशते थे, उससे फिर अपना तराशते थे।
विज्ञापनो की दुनिया प्रायः छल-छद्म से जुड़ी होती है। प्रोपेगेण्डा वहां
प्रमुख होता है। येन-केन प्रकारेण लक्षित समूह को प्रभावित करना ही उसका मुख्य
ध्येय होता है, पर वहां यदि आत्मीयता का रंग घोल दिया जाए तो संप्रेषण की जटिलताएं समाप्त हो
जाती है। पीयूष पाण्डे ने अपने सिरजे विज्ञापनों में यही किया। विज्ञापन में
ब्रांड कब जीवन से जुड़ हमारा अपना हो जाता है, पता ही नहीं चलता। और यह शायद इसलिए भी है कि वहां
ब्रांड को प्रचारित करने की बजाय जन मन में घुलने की दृष्टि और सृष्टि का आग्रह
अधिक है।
’मिले सुर मेरा तुम्हारा’ गीत पीयूष पाण्डे का था। इसे अलग-अलग भाषाओं में
सुनेंगे और दृश्य में घटित देखेंगे तो लगेगा माधुर्य का कोई अनुष्ठान हुआ है।
भाषाई विविधता में भारत की अनेकता में एकता की बहती सुर-नदियों का यह विरल प्रसार
ही तो है। संस्कृति की, देश की मिट्टी की महक जो इसमें समाई है!
पीयूष पाण्डे इसलिए भी याद आते रहेंगे कि विज्ञापनों से जुड़ी जनसंचार की
लोकप्रिय भारतीय-संस्कृति का निर्माण उन्होंने किया। रचनात्मक दृष्टि को कैसे
लक्षित समूह के लिए विचार बना संप्रेषित किया जा सकता है, यह वह जैसे अपने विज्ञापनों से व्याख्यायित करते
थे। विचार किस तरह से किसी उत्पाद को एक नया आयाम दे सकता है, उनकी विज्ञापन भाषा इसका
अप्रतिम उदाहरण बनी। वह लोगों को, समाज को पढ़-सुन कर उसे विज्ञापन में गढते थे। यह था तभी तो उनके विज्ञापनों ने
ब्रांड को नई ऊंचाइयां ही नहीं दी, आम लोगों के दिलों में बसाया।
पीयूष पाण्डे विज्ञापन को कलात्मक सौंदर्य प्रदान कर उसे जीवन से, जन-मन की भावनाओं से,
रोजमर्रा की जिंदगी से
ओतप्रोत करने की भारतीय दृष्टि के संवाहक थे। वह नहीं रहे, पर उनके विज्ञापन बोल सदा जीवंत रहेंगे। अमेरिकी
विज्ञापन जगत के पंडित विलियम बर्नबैक ने कभी कहा था, विज्ञापन विज्ञान नहीं, अनुनय कला है। पीयूष पांडे इस अनुनय कला की भारतीय
दृष्टि थे।
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