पत्रिका, 18 अक्टूर 2025
अलगोजा लोक वाद्य है। पर इसकी जड़ें हमारी सनातन संस्कृति से जुड़ी है। भागवत में आता है, भगवान श्री कृष्ण साथी ग्वालों को शृंग बजाकर जगाते थे। वह शृंग प्रिय है। प्राचीन ग्रंथों में शृंग सुषीर—वाद्य है।
श्रीकृष्ण का शृंग है, वेणु। इसी से मिलता—जुलता है, अलगोजा। इसकी उत्पत्ति विश्वभर में सभ्यता का पालना कही जाने वाली मेसोपाटामिया के "अल-जोज़ा" से भी जुड़ी है। वहां से ईरान और फिर भारतीय उपमहाद्वीप तक पहुंचते पहुंचते यह 'अलगोजा' हो गया। इस शब्द का अर्थ होता है, "जुड़वाँ"। असल में यह दो जुड़ी हुई चोंच वाली बांसुरी है।
...मलिक मुहम्मद जायसी के 'पद्मावत' में आया है, 'अलगोजे बज्जत छिति पर छज्जत सुनि धुनि लज्जत कोइ'। माने जब पृथ्वी पर अलगोजा बजता है तो उसे सुनकर हर कोई आनंदित होता है। पाकिस्तान के मिश्रीखान जमाली अलगोजे के विरल वादक रहे हैं।
पंजाब की 'लम्बी हेक दी मलिका' गुरमित बावा प्राय: अलगोजे के साथ ही सुरों को साधती थी। 'अलगोजा' चरवाहों के रंजन से जुड़ा रहा है। अस्सी वर्षीय रामनाथ चौधरी इसे नाक से बजाते हैं। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन जयपुर आए तो अलगोजे पर रीझते वह रामनाथ चौधरी को आग्रह कर अमेरिका ले गए। तगाराम भील ने पशुओं को चराते समय वन में पिता का अलगोजा चुराकर लेजाकर उसे बजाना सीख लिया।
...प्रकृति को निवेदित कला सहज—सौंदर्य लिए होती है।अकबर ने एक दफा तानसेन के मधुर स्वरों को सुन कहा था, 'तुमसे बेहतर इस संसार में और कोई नहीं गा सकता!' तानसेन ने जवाब दिया था, 'मेरे गुरु स्वामी हरिदास के सामने मेरा गान कुछ भी नहीं है।' अकबर ने उनको बुलाने का आग्रह किया। तानसेन ने कहा, वह आग्रह पर नहीं गाते। वह जब गा रहें हो तो हम छिपकर सुन सकते हैं। यही हुआ। अकबर ने स्वामी हरिदास को गाते सुना तो सुनते ही रह गया। बोला, 'तानसेन तुम्हारे स्वरों में यह मिठास क्यों नहीं है?' तानसेन का जवाब था, ' हुजूर मैं आपके लिए गाता हूं, मेरे गुरु ईश्वर के लिए गाते हैं।'
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