पंडित छन्नू लाल मिश्र का बिछोह संगीत संग उसकी समझ को व्याख्यायित करने की गहन दृष्टि से, संगीत की हमारी ज्ञान-परम्परा से बिछुड़ना है। बहुत कम ऐसे गायक रहे हैं जिनका रागदारी पर जितना अधिकार होता है उतना ही उससे जुड़ी परम्परा पर भी हो।
छन्नूलाल मिश्र ऐसे ही थे। वह गाते ही नहीं थे, गान और संगीत से जुड़ी हमारी विरासत से हमें जोड़ते थे।
...उनकी किस्सागोई लुभाती थी, इसलिए कि गाते हुए रस लेकर श्रोताओं को संबोधित होते थे।ठुमरी गाते तो यह बताते थे कि कैसे बोल बनाव में वह लोगों का मन हर्षाती है। चैती गाते तो चैती, चैत्र मास और घाटो के अर्थ समझाते।
...पहली बार उन्हें सुना था तब उनका गला बैठा हुआ सा लगा था। आवाज में भी माधुर्य का अभाव खला था पर जब बाद में ’खेलें मसाने में होरी दिगम्बर खेलें मसाने में होरी भूत पिशाच बटोरी दिगम्बर खेले मसाने में होरी..!’ सुना तो लगा, वह गाते नहीं, संगीत को ओढ़ते-बिछाते उसमें रससिक्त हो हमें भी भावों से सराबोर करते हैं।
... उनका गान संगीत का छंद था। छंद शब्द संस्कृत की ’छद्’ धातु से बना है। अर्थ होता है, खुश करना। छन्नू लाल मिश्र का संगीत ऐसा ही था, लुभाता हुआ अंतर्मन उल्लास देने वाला।...
घराने से नहीं, संगीत में कहन के अंदाज ने उन्हें विशिष्ट पहचान दी। भले देह से पंडित छन्नूलाल मिश्र हमसे दूर चले गए हैं। पर, गान के उनके अंदाज, उनकी व्याख्याएं और बनारस के मर्णिकर्णिका श्मशान घाट पर शिव के होली खेलने के आनंद गान ’खेलें मसाने में होरी दिगम्बर खेले...’ में मृत्यु भी जैसे जश्न मनाते समझा रही है कि वह कहीं नहीं गए, यहीं है-सुनने वालों के संग।
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