ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Thursday, December 26, 2024

तबले में जीवन छंद रचने वाले 'वाह! उस्ताद'

 तबले की स्वतंत्र सत्ता से ठीक से किसी ने परिचित कराया तो वह उस्ताद ज़ाकिर हुसैन थे। वह बजाने के लिए ही नहीं बजाते थे, तबले में रच—बस अपने को उसमें विलीन करते थे। जब भी उन्हें सुना, ताल की नई दृष्टि पाईं। गायन और दूसरे वाद्यों की संगत से जुड़े तबले में छंद गुँथाव से एक नई ताल - भाषा किसी ने सिरजी है तो वह उस्ताद जाकिर हुसैन थे। उन्होंने तबले में वार्तालाप संभव किया। राग ताल की उनकी भाषा इसलिए लुभाती थी कि वहां काल प्रवाह से साक्षात होता था।...ध्वनियों में कितने—कितने छंद वह गूंथते रहे हैं...

'दैनिक जागरण' 23 दिसम्बर 2024


Wednesday, December 25, 2024

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आलोचना पुरस्कार

पुरस्कार के लिए कभी लिखना नहीं हुआ। पर, जब किसी कृति को इस बहाने स्वीकृति मिलती है तो सुखद लगता है। 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी को ही तो पढ़—गुन थोड़ी कुछ समझ बनी है... 









Saturday, December 21, 2024

ग्रंथ को ही गुरु मानने वाली संस्कृति

पत्रिका, 21 दिसम्बर 2024
संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुण है। समूह में व्याप्त विश्वास, आस्थाएं और कलाएं संस्कृति की ही व्यंजना है। गुरु—शिष्य परम्परा तो और भी स्थानों पर है पर ग्रंथ को गुरु मान पूजने की संस्कृति विश्व में कहीं है तो वह हमारे यहां ही है। इस संस्कृति के उन्नायक कोई  रहे हैं तो वह है गुरु गोबिन्द सिंह। उनके व्यक्तित्व पर जब भी मन जाता है, अनूठा आलोक पाता हूं। वह'सरबंसदानी' थे। अपने सहित पूरे परिवार का दान करने वाले। उनके चार साहिबजादों के बलिदान की स्मृति में ही पिछले वर्ष से हर वर्ष 26 दिसंबर को 'वीर बाल दिवस' मनाने की पहल देश में हुई है।

गोबिन्द सिंहजी गुरु नहीं भारतीय संस्कृति की सुगंध है। पिता का नाम त्यागमल था पर वह तेगबहादुर कहाए। माने तलवार के धनी। धर्म परिवर्तन नहीं करने पर औरंगज़ेब ने उनका सिर कटवा दिया। नौ वर्ष की कम उम्र में ही गोबिन्द सिंह गुरु गद्दी पर बैठे। यह वह दौर था जब मुगल शासक हिंदुओं को चिड़ियों का झुंड कहते थे। बाज के आने से जैसे चिड़िया भाग जाती है, उसी तरह मुगलों के अत्याचार से तितर-बितर होने वाला समूह। गोबिन्द सिंहजी ने तभी प्रतिज्ञा की 'सवा लाख से एक लड़ाऊँ तबे गोविंदसिंह नाम कहाऊँ।' माने वह इन चिड़ियों के झुण्ड में वह शक्ति उत्पन्न कर देंगे जिससे वह बाजों को मारकर खाने लग जाए। खालसा पंथ की स्थापना कर उन्होंने उपदेश दिया, किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। एक नए अभिवादन की उन्होंने शुरुआत की, 'वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरु जी की फ़तह'। 

औरंगजेब ने उनकी वीरता के सामने घुटने टेकते एक दफा अपने साथ मिलने का पत्र लिखा, एक वाहे गुरु को जैसे वह मानते हैं, ऐसे ही उनका अल्लाह है। फिर किस बात की दुश्मनी!  गुरु गोबिंद सिंह ने इन्कार करते जवाब दिया, नियत का फर्क बहुत बड़ा है। औरंगजेब के ही अनुयायी वज़ीर ख़ाँ ने धर्म परिवर्तन नहीं करने पर गुरु गोबिंद सिंह बेटों को  ज़िंदा दीवार में चिनवा दिया। अंतिम पड़ाव मे गुरु गोबिंद सिंह नांदेड़ में जब प्रार्थना बाद आराम कर रहे थे, दो युवा पठानों अताउल्ला ख़ाँ और जमशेद ख़ाँ ने उनके पेट पर छुरे से वार कर बुरी तरह से घायल कर दिया। कुछ समय बाद वह अंतिम गति को प्राप्त हो गए।

इस समय जब नई शिक्षा नीति में भारतीय ज्ञान परम्परा को लेकर बहुत उत्साह है, मुझे लगता है गुरु गोबिंद सिंह की सौंपी संस्कृति पर भी हमें नए ढंग से विचार करना चाहिए। उन्होंने अंतिम समय में उजास दिया, अब से कोई गुरु नहीं होगा। ग्रंथ ही गुरु होगा। मुझे लगता है, विश्व की कोई ऐसी संस्कृति नहीं होगी जहां ग्रंथ को ही गुरु रूप में मान्यता मिली हो।

ज्ञान—गुरु ही तो है—'गुरु ग्रंथ साहिब' । क्या नहीं है इसमें? सभी धर्मों का सार। सिखों के हरेक गुरु ने अपने अनुभवों का संचित ज्ञान इसमें संजोया है। दशवें और अंतिम गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने से पहले गुरु तेगबहादुर जी के 116 शब्द जोड़कर इसे पूर्ण किया। कबीर, रविदास, नामदेव, सैण जी, सघना जी, छीवाजी, धन्ना की वाणी इसमें है तो पांचों वक्त नमाज पढ़ने में विश्वास रखने वाले शेख फरीद के श्लोक भी हैं। सहज, सरल भाषा और कहन का सांगीतिक अंदाज इसमें है। यह संगीत के सुरों व रागों के प्रयोग में गूंथा है। गुरु ग्रंथ कहें या 'गुरुबानी' , यह—वह अनूठा उदाहरण है जिसमें सदा शरीरी गुरूस्वरूप ग्रंथ को ऊँची गद्दी पर 'पधराया' जाता है। उसपर चंवर ढलते हैं। पुष्पादि चढ़ते और बाकायदा आरती उतारी जाती है। विश्व—संस्कृति में ग्रंथ को गुरु मान उसके आदर्श के आचरण की ऐसी दृष्टि और कहीं नहीं मिलेगी।


Thursday, December 12, 2024

अहमदाबाद 'अन्तरराष्ट्रीय पुस्तक महोत्सव-2024’

अहमदाबाद में आयोजित होने वाले प्रतिष्ठित पुस्तक महोत्सव के समापन सत्र में पुस्तकें और यात्रा संस्कृति विषय पर बोलने का संयोग हुआ। इस उत्सव में 8 दिसम्बर, रविवार—समापन समारोह के सत्र में—अपनी लिखी यात्रा—संस्मरण पुस्तकों 'कश्मीर से कन्याकुमारी', 'नर्मदे हर' और 'आंख भर उमंग' से जुड़ी अनुभूतियां साझा की। गुजरात में पढ़ने की संस्कृति है। पुस्तकों से लोगों को लगाव है। 'पुस्तक महोत्सव' में सुनने वालों का हुजूम उत्साहित करने वाला था...





‘बहुवचन’ में राजस्थानी भाषा का स्वरूप और शब्द सम्पदा

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘बहुवचन’ में...राजस्थानी भाषा का स्वरूप और शब्द सम्पदा पर यह दीठ

"राजस्थानी भाषा नहीं संस्कृति है। यह ऐसी आधुनिक भाषा है, जिसमें साहित्य की सभी विधाओं में नौंवी शताब्दी से ही लिखा हुआ बहुत सारा उपलब्ध होता आ रहा है। इतिहास और संस्कृति के विरल आख्यान लिए है यह भाषा। कविन्द्र रवीन्द्र ने कभी कहा था, रवीन्द्र गीतांजलि लिख सकता है परन्तु डिंगल जैसे दोहे नहीं!

विडम्बना है, ऐसी समृद्ध, अनुपम भाषा अभी भी मान्यता की बाट जो रही है...






Tuesday, December 10, 2024

नदी से जुड़ी संस्कृति और शिव

राजस्थान पत्रिका, 7 दिसम्बर 2024

संस्कृति जीवन छंद है। 'छद्' धातु से बना है छंद। अर्थ है, आह्लादित करना। इधर घुमक्कड़ी में निरंतर यह अनुभूत किया कि कल कल बहती भारत की नदियां इस छंद की सुगंध है। यह भी पाया है, संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाएं भी नदी में ध्वनित होती हममें बसती हैं। संस्कृति के इस रम्य रूप की सौगात इधर केदारनाथ यात्रा में मिली। कपाट बंद होने से कुछ दिन पहले वहां जाने जाने का सुयोग हुआ। गौरीकुंड से केदारनाथ की पैदल खड़ी चढ़ाई हैं। पर चढ़ाई में झरनों का संगीत थकान उतारता जाता है। रास्ते भर मंदाकिनी नदी को देखना भी सुखद अचरज है। मन्दाकिनी माने वह जो शिथिलता से बहे। पर पहाड़ों की गहरी घाटियों के मध्य उसकी किलकारियां गूंजती हुई लुभाती है। उसका बहता हुआ नीला रंग और चट्टानों में दौड़ता धवल झाग!

मंदाकिनी ही नहीं सभी नदियां कभी नहीं थकने का मंत्र गाती है। नदी और नृत्य में विरल समानता होती है। दोनों गति में जीवंत होते हैं। नदी का अर्थ ही है, जीवन प्रवाह। अविरल बह वह समुद्र में मिल जाती है। पर रास्ते के गड्ढों को भरती जाती वह अभाव में भी जैसे भाव भरती जाती है।

कहीं पढ़ा हुआ याद आया। सभी नदियां सागर पत्नी हैं। समुद्र का एक नाम सरित्पति है। समुद्र नदियों के कारण ही पवित्र है। इसीलिए तो कहा है, 'सागरे सर्व तीर्थानि'। पहाड़ों में बहती नदी की ध्वनि को सुन किसी ने कहा समुद्र की ओर जाती नदी अपने ससुराल जाते हुए रो रही है। पर, इस रोने में मिलन की सुखानुभूति है। पूर्णता पाने की चाह समाई है। नदी का ब्याह सगोत्र में नहीं होता। दूर वास करने वाले समुद्र से होता है। इसलिए वह भारतीय संस्कृति की सूक्ष्म व्यंजना है। हमारे यहां एक ही गौत्र में विवाह नहीं करने की दृष्टि क्या नदी संस्कृति की सीख ही नही है? पुराने जमाने में राजपुत्र दूर दूर के राजाओं की कन्याओं से ब्याह करते थे। नदियों से सीखी यह संस्कृति ही हमारे जीवन का वैज्ञानिक आधार है।

मंदाकिनी शिव—तीर्थ केदारनाथ की सुगंध है। पुराण कहते हैं, महाभारत युद्ध के बाद पांडवों ने मंदाकिनी घाटी के सामने शिव धाम का निर्माण किया। शिव का कोई रूप—रंग कहां है! रम्य प्रकृति ही शिव का वास्तविक सौंदर्य है। अकेले शिव हैं जो हिमालय पर्वत पर विराजते हैं। शिव का एक नाम व्योम है। माने आकाश। समाधिस्थ चित्त की वह अवस्था जिसमें केवल आंतरिक चेतना का खाली आकाश होता है। जिस भाव रूप में रंगे उसी में शिव शृंगारित हो दर्शन देते हैं। शिव माने प्रकृति का सामीप्य। शिव संस्कृति की प्रकृति है। 

गौरीकुंड से सुबह पग पग चला तो सांझ केदार पहुंचा। दूर ऊपर एक पहाड़ी के टुकड़े पर धवल बर्फ और अस्ताचल होते सूर्य की किरणों से स्वर्णिम होती उसकी आभा पर नजर ठहरी। जैसे प्रकृति ने शिव मंदिर को हीरे, जवाहरात से जड़ मुकुट पहना दिया है। थका थका यह देख रहा था कि औचक हल्की फुहार हुई। कालिदास के मेघदूत की याद आई जहां वह मेघ से संबोधित है, 'तट पर पुष्प वन उगा है, जिसमें परिश्रम क्लांत मालिने फूल चुनती है। उनके मुख और ललाट पर पसीना आता रहता है। थकान से उनके मुख मुरझा जाते हैं। ओ मेघ, तुम उनके चेहरे पर हल्की फुहार देना। उनके मुख कमल अचानक खिल जाएंगे।' केदार पहुंच मुझे लगा शिव ने मेघ से कह हल्की फुहार करवाई है। सोलह किलोमीटर की दुर्गम पर्वत पथ यात्रा की सारी थकान पल में मिट गई। शिव सौंदर्य से नहा उठा कृतज्ञ मन!