ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Tuesday, December 10, 2024

नदी से जुड़ी संस्कृति और शिव

राजस्थान पत्रिका, 7 दिसम्बर 2024

संस्कृति जीवन छंद है। 'छद्' धातु से बना है छंद। अर्थ है, आह्लादित करना। इधर घुमक्कड़ी में निरंतर यह अनुभूत किया कि कल कल बहती भारत की नदियां इस छंद की सुगंध है। यह भी पाया है, संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाएं भी नदी में ध्वनित होती हममें बसती हैं। संस्कृति के इस रम्य रूप की सौगात इधर केदारनाथ यात्रा में मिली। कपाट बंद होने से कुछ दिन पहले वहां जाने जाने का सुयोग हुआ। गौरीकुंड से केदारनाथ की पैदल खड़ी चढ़ाई हैं। पर चढ़ाई में झरनों का संगीत थकान उतारता जाता है। रास्ते भर मंदाकिनी नदी को देखना भी सुखद अचरज है। मन्दाकिनी माने वह जो शिथिलता से बहे। पर पहाड़ों की गहरी घाटियों के मध्य उसकी किलकारियां गूंजती हुई लुभाती है। उसका बहता हुआ नीला रंग और चट्टानों में दौड़ता धवल झाग!

मंदाकिनी ही नहीं सभी नदियां कभी नहीं थकने का मंत्र गाती है। नदी और नृत्य में विरल समानता होती है। दोनों गति में जीवंत होते हैं। नदी का अर्थ ही है, जीवन प्रवाह। अविरल बह वह समुद्र में मिल जाती है। पर रास्ते के गड्ढों को भरती जाती वह अभाव में भी जैसे भाव भरती जाती है।

कहीं पढ़ा हुआ याद आया। सभी नदियां सागर पत्नी हैं। समुद्र का एक नाम सरित्पति है। समुद्र नदियों के कारण ही पवित्र है। इसीलिए तो कहा है, 'सागरे सर्व तीर्थानि'। पहाड़ों में बहती नदी की ध्वनि को सुन किसी ने कहा समुद्र की ओर जाती नदी अपने ससुराल जाते हुए रो रही है। पर, इस रोने में मिलन की सुखानुभूति है। पूर्णता पाने की चाह समाई है। नदी का ब्याह सगोत्र में नहीं होता। दूर वास करने वाले समुद्र से होता है। इसलिए वह भारतीय संस्कृति की सूक्ष्म व्यंजना है। हमारे यहां एक ही गौत्र में विवाह नहीं करने की दृष्टि क्या नदी संस्कृति की सीख ही नही है? पुराने जमाने में राजपुत्र दूर दूर के राजाओं की कन्याओं से ब्याह करते थे। नदियों से सीखी यह संस्कृति ही हमारे जीवन का वैज्ञानिक आधार है।

मंदाकिनी शिव—तीर्थ केदारनाथ की सुगंध है। पुराण कहते हैं, महाभारत युद्ध के बाद पांडवों ने मंदाकिनी घाटी के सामने शिव धाम का निर्माण किया। शिव का कोई रूप—रंग कहां है! रम्य प्रकृति ही शिव का वास्तविक सौंदर्य है। अकेले शिव हैं जो हिमालय पर्वत पर विराजते हैं। शिव का एक नाम व्योम है। माने आकाश। समाधिस्थ चित्त की वह अवस्था जिसमें केवल आंतरिक चेतना का खाली आकाश होता है। जिस भाव रूप में रंगे उसी में शिव शृंगारित हो दर्शन देते हैं। शिव माने प्रकृति का सामीप्य। शिव संस्कृति की प्रकृति है। 

गौरीकुंड से सुबह पग पग चला तो सांझ केदार पहुंचा। दूर ऊपर एक पहाड़ी के टुकड़े पर धवल बर्फ और अस्ताचल होते सूर्य की किरणों से स्वर्णिम होती उसकी आभा पर नजर ठहरी। जैसे प्रकृति ने शिव मंदिर को हीरे, जवाहरात से जड़ मुकुट पहना दिया है। थका थका यह देख रहा था कि औचक हल्की फुहार हुई। कालिदास के मेघदूत की याद आई जहां वह मेघ से संबोधित है, 'तट पर पुष्प वन उगा है, जिसमें परिश्रम क्लांत मालिने फूल चुनती है। उनके मुख और ललाट पर पसीना आता रहता है। थकान से उनके मुख मुरझा जाते हैं। ओ मेघ, तुम उनके चेहरे पर हल्की फुहार देना। उनके मुख कमल अचानक खिल जाएंगे।' केदार पहुंच मुझे लगा शिव ने मेघ से कह हल्की फुहार करवाई है। सोलह किलोमीटर की दुर्गम पर्वत पथ यात्रा की सारी थकान पल में मिट गई। शिव सौंदर्य से नहा उठा कृतज्ञ मन!


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