ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, December 21, 2024

ग्रंथ को ही गुरु मानने वाली संस्कृति

पत्रिका, 21 दिसम्बर 2024
संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुण है। समूह में व्याप्त विश्वास, आस्थाएं और कलाएं संस्कृति की ही व्यंजना है। गुरु—शिष्य परम्परा तो और भी स्थानों पर है पर ग्रंथ को गुरु मान पूजने की संस्कृति विश्व में कहीं है तो वह हमारे यहां ही है। इस संस्कृति के उन्नायक कोई  रहे हैं तो वह है गुरु गोबिन्द सिंह। उनके व्यक्तित्व पर जब भी मन जाता है, अनूठा आलोक पाता हूं। वह'सरबंसदानी' थे। अपने सहित पूरे परिवार का दान करने वाले। उनके चार साहिबजादों के बलिदान की स्मृति में ही पिछले वर्ष से हर वर्ष 26 दिसंबर को 'वीर बाल दिवस' मनाने की पहल देश में हुई है।

गोबिन्द सिंहजी गुरु नहीं भारतीय संस्कृति की सुगंध है। पिता का नाम त्यागमल था पर वह तेगबहादुर कहाए। माने तलवार के धनी। धर्म परिवर्तन नहीं करने पर औरंगज़ेब ने उनका सिर कटवा दिया। नौ वर्ष की कम उम्र में ही गोबिन्द सिंह गुरु गद्दी पर बैठे। यह वह दौर था जब मुगल शासक हिंदुओं को चिड़ियों का झुंड कहते थे। बाज के आने से जैसे चिड़िया भाग जाती है, उसी तरह मुगलों के अत्याचार से तितर-बितर होने वाला समूह। गोबिन्द सिंहजी ने तभी प्रतिज्ञा की 'सवा लाख से एक लड़ाऊँ तबे गोविंदसिंह नाम कहाऊँ।' माने वह इन चिड़ियों के झुण्ड में वह शक्ति उत्पन्न कर देंगे जिससे वह बाजों को मारकर खाने लग जाए। खालसा पंथ की स्थापना कर उन्होंने उपदेश दिया, किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। एक नए अभिवादन की उन्होंने शुरुआत की, 'वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरु जी की फ़तह'। 

औरंगजेब ने उनकी वीरता के सामने घुटने टेकते एक दफा अपने साथ मिलने का पत्र लिखा, एक वाहे गुरु को जैसे वह मानते हैं, ऐसे ही उनका अल्लाह है। फिर किस बात की दुश्मनी!  गुरु गोबिंद सिंह ने इन्कार करते जवाब दिया, नियत का फर्क बहुत बड़ा है। औरंगजेब के ही अनुयायी वज़ीर ख़ाँ ने धर्म परिवर्तन नहीं करने पर गुरु गोबिंद सिंह बेटों को  ज़िंदा दीवार में चिनवा दिया। अंतिम पड़ाव मे गुरु गोबिंद सिंह नांदेड़ में जब प्रार्थना बाद आराम कर रहे थे, दो युवा पठानों अताउल्ला ख़ाँ और जमशेद ख़ाँ ने उनके पेट पर छुरे से वार कर बुरी तरह से घायल कर दिया। कुछ समय बाद वह अंतिम गति को प्राप्त हो गए।

इस समय जब नई शिक्षा नीति में भारतीय ज्ञान परम्परा को लेकर बहुत उत्साह है, मुझे लगता है गुरु गोबिंद सिंह की सौंपी संस्कृति पर भी हमें नए ढंग से विचार करना चाहिए। उन्होंने अंतिम समय में उजास दिया, अब से कोई गुरु नहीं होगा। ग्रंथ ही गुरु होगा। मुझे लगता है, विश्व की कोई ऐसी संस्कृति नहीं होगी जहां ग्रंथ को ही गुरु रूप में मान्यता मिली हो।

ज्ञान—गुरु ही तो है—'गुरु ग्रंथ साहिब' । क्या नहीं है इसमें? सभी धर्मों का सार। सिखों के हरेक गुरु ने अपने अनुभवों का संचित ज्ञान इसमें संजोया है। दशवें और अंतिम गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने से पहले गुरु तेगबहादुर जी के 116 शब्द जोड़कर इसे पूर्ण किया। कबीर, रविदास, नामदेव, सैण जी, सघना जी, छीवाजी, धन्ना की वाणी इसमें है तो पांचों वक्त नमाज पढ़ने में विश्वास रखने वाले शेख फरीद के श्लोक भी हैं। सहज, सरल भाषा और कहन का सांगीतिक अंदाज इसमें है। यह संगीत के सुरों व रागों के प्रयोग में गूंथा है। गुरु ग्रंथ कहें या 'गुरुबानी' , यह—वह अनूठा उदाहरण है जिसमें सदा शरीरी गुरूस्वरूप ग्रंथ को ऊँची गद्दी पर 'पधराया' जाता है। उसपर चंवर ढलते हैं। पुष्पादि चढ़ते और बाकायदा आरती उतारी जाती है। विश्व—संस्कृति में ग्रंथ को गुरु मान उसके आदर्श के आचरण की ऐसी दृष्टि और कहीं नहीं मिलेगी।


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