ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Saturday, April 19, 2025

गति-लय के देह गान का बिछोह

पत्रिका, 19 अप्रैल 2025

कुमुदिनी लाखिया नृत्य और नृत्त के अन्त:संबधों की संवाहक थी। उनका अवसान भारतीय कला के एक युग का बिछोह है। कुमुदिनी ने कथक में पहले से होती आ रही परम्पराओं को पुनर्नवा कर उसे आधुनिक दृष्टि दी। वह विरल नर्तक थी। नृत्य में निहित भावनाओं और आंगिक हाव—भाव संग वह नृत्य—नृत्त करती थी। माने शुद्ध शारीरिक गति और लय में वह देह के गान की रसानुभूति कराती भावों का अनूठा संसार रचती थी। कथक में अमूर्तन की दृष्टि पहले—पहल किसी ने  दी तो वह कुमुदिनी लाखिया थी। 

कुमुदिनी ने कथक को मंचीय—विस्तार दिया। मंच पर खाली जगहों, वहां की निष्क्रियता में नृत्य और नृत्त की ऊर्जा संग उन्होंने उमंग भरी। कथक में समूह नृत्य की प्रवर्तक वही थी। नृत्य—नृत्त के भेद समझाते कुमुदिनी ने कथक के बंधे—बंधाए नियमों के अनुशासन को बरकरार रखते हुए भी कथक को समयानुरूप आधुनिक दृष्टि दी। सर्वथा नया व्याकरण विकसित किया। बंधे—बंधाए कथानकों की रूढ़ि में कथक के होने की मुक्ति की राह भी किसी ने तलाशी तो वह कुमुदिनी लाखिया थी।

याद है, भोपाल स्थित अलाउद्दीन खां अकादमी के उपनिदेशक रहे, मित्र राहुल रस्तोगी संग एक दफा संवाद में यह तय हुआ था कि कुमुदिनी लाखिया की कथक—विचार दृष्टि को उनके यहां जाकर हम संजोंएंगे। पर कुछ व्यवधान ऐसे उभरे कि यह संभव नहीं हो सका। पर इस दौरान उनकी कला की मौलिकता को निरंतर जिया। वह नाचती तो आंगिक क्रियाएं विचार बन हमसे संवाद करती। नृत्य में देह का विसर्जन कर विचार का प्रगटीकरण किसी ने किया तो वह कुमुदिनी लाखिया थी। उनकी नृत्य—प्रस्तुतियां 'सेतु', 'चक्षु', 'दुविधा', 'कोट' देखते सदा ही यह लगता है कि नृत्य में अमूर्त भी खंड—खंड अखंड विचार बन हममें समाता चला जाता है।

कमुदिनी ने नृत्य में  लोक का आलोक संजोया। छाया—प्रकाश, रंगो और परिधानों के बंधे—बंधाए ढर्रे को तोड़ते कथक में कोरियोग्राफी का नया शास्त्र आरंभ किया। कथक में बेले सरीखी छलांग लगाते उड़ान के दृश्य प्रस्तुत करना, तैरना, फिसलना और उतरने की जो अंग—क्रियाएं कुमुदिनी ने ईजाद की, वह कथक के भविष्य का उजास है। नृत्य में अपने आपको वह विसर्जित कर देती थी। यह उनकी कला—दृष्टि ही थी जिसमें उन्होंने नृत्य में बाधा बनते दुपट्टे को हटाकर पोशाक की रूढ़ियों को तोड़ा। उनकी नृत्य प्रस्तुति 'दुविधा' महिला के आंतरिक संघर्ष की व्यंजना है। इसमें पहली बार इलेक्ट्रॉनिक संगीत का प्रयोग हुआ। ऐसे ही सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता 'कोट' पर उन्होंने विरल नृत्य—रचा। 'उमराव जान' फिल्म का नृत्य निर्देशन किया। 

कथक में एकल की बजाय सामूहिक नृत्य की उनकी दृष्टि पर एक दफा संवाद हुआ तो उन्होंने कहा, 'समूह नृत्य मे साथ—साथ संगत महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है—रोशनी, छाया, अंधेरे के साथ लयबद्धता।' अहमदाबाद में अपने नृत्य—स्कूल 'कदंब' को इसी उद्देश्य से उन्होंने शुरू किया था कि जो कुछ चल रहा है, उससे इतर कथक में नयी सोच को आयाम दिए जाएं। खुद उन्होंने शंभु महाराज, पंडित सोहन लाल, सुंदर प्रसाद आदि से नृत्य सीखा परन्तु विषय-आधारित प्रस्तुतियों के अंतर्गत लंबी कथा की बजाय अमूर्त अवधारणाओं को कथक में जीवंत करते उसमें सौंदर्य की नई भाव—दृष्टि जोड़ी।

कुमुदिनी ने कृषि में स्नातक की डिग्री ली थी। वह अच्छी घुड़सवार थी। भरतनाट्यम की अच्छी नृत्यांगना थी। पर साधा अपने को कथक में ही। वह जब 16 वर्ष की हुई तो रामगोपाल के साथ लंदन की यात्रा पर गई। बेले और पश्चिम के दूसरे नृत्यों की बारीकियों में जाते बाद में कथक में भी इनका समावेश किया। 

नृत्य में कोरियोग्राफी का जो व्याकरण कुमुदिनी लाखिया ने सिरजा, उसका मूल था—प्रकाश, परिधान, सजने—संवरने के साथ थिरकन का ऐसा समन्वय जिसमें नृत्य करते आप विचार का आलोक बन जांए। थिरकती देह का सौंदर्य में विसर्जन हो जाए और रह जाए बस अंग—अंग भाव—भव! वह ठीक ही कहती थी, 'मैं नृत्य नहीं सिखार्ती नर्तक बनाती हूं।' माने नृत्य में कुछ भी बनावटीपन नहीं रहे। नर्तक अपनी कला का प्रदर्शन करे तो देखने वाले अपने आप नाचने लग जाए। उनका निधन कथक ही नहीं नृत्य की उस भारतीय विरासत से बिछोह है, जिसमें कोई कलाकार अपने तई शास्त्रीय सिद्धान्तों को बरकार रखते समय—संदर्भों में कलाओं को जीवंत करता है।


Sunday, April 6, 2025

लोक संस्कृति में परम्पराओं का उजास

'पत्रिका', 5 अप्रैल 2025

लोक का अर्थ है देखना। यह देखना बाह्य ही नहीं आं​तरिक भी होता है। 

युगीन संदर्भों में लाक संस्कृति हमें सदा नई परम्पराएं सौंपती है। आधुनिक दृष्टि देती है। 

राजस्थान में कभी दूर तक पसरे रेत के धोरे, आंधियां,लू चलती। 

पानी की एक—एक बूंद के लिए लोग तरसते। अभाव ही अभाव थे पर जीवन से जुड़े संस्कारों ने चटख रंगों की चूंदड़ी, रंग—बिरंगी पाग ने भाव भरे। 

लोक में अभावों का रोना नहीं है। लोक कथाएं, गीत, संगीत आदि सभी संस्कृति का सधे ढंग से निर्माण करती है। 

वनस्पति उद्गम को भीलों के गायन 'बड़लिया—हिंदवा' में संजोया गया है

...धरती पर पेड़ आने के बाद की आशंका उनके कटने की है। 

इससे आगे की लोक संस्कृति 'सिर साटे रूंख तो भी सस्तो जाण' का खेजड़ली का बलिदान है...

लोक में ऐसे ही आधुनिक दृष्टि  जीवन को संपन्न करती जाती है।

साहित्योत्सव पर

 'अमर उजाला' नई दिल्ली और 'नवभारत' रायपुर में साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित एशिया के सबसे बड़े साहित्योत्सव पर लिखा है—

अमर उजाला, 19 मार्च 2025

Tuesday, March 25, 2025

"दैनिक जागरण" में

 राग परमेश्वरी—सुनते कुछ गुना...

'जागरण' में—

दैनिक जागरण, 24 मार्च 2025


Monday, March 24, 2025

टाइम्स समूह के विश्वविद्यालय 'बेनेट यूनिवर्सिटी' में व्याख्यान

टाइम्स समूह के समाचार पत्र 'नवभारत टाइम्स' में कभी कॉलम लिखता था। 

यह जूनी बात है। सुखद लगा, जब इस समूह द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय 'बेनेट यूनिवर्सिटी' ने अतिथि लेखक के रूप में बोलने के लिए आमंत्रित किया...









बिरजू महाराज रचा शोध आख्यान 'कथक दिग्दर्शन'

पत्रिका, 22 मार्च 2025

बिरजू महाराज नृत्य सम्राट ही नहीं थे, कलाओं के अंतः संबंधों के संवाहक थे। वह कथक नृत्य सिद्ध थे। संवेदनशील कवि और चित्रकार थे और चिंतन—मनन से जुड़े विरल संगीतज्ञ भी थे। संस्कृति मंत्रालय ने उन्हें कथक पर शोध के लिए "टैगोर राष्ट्रीय फैलोशिप" प्रदान की थी। संगीत नाटक अकादमी ने इसी माह उनके इस शोध कार्य को "कथक दिग्दर्शन" पुस्तकाकार में प्रकाशित किया है। यह बिरजू महाराज का शोध आख्यान नहीं, कथक के आलोक में रची उनकी आपबीती है। इसमें उनकी दुर्लभ छवियां हैं, उनके सिरजे चित्रों की सुंदर सृष्टि है और है, उनकी विरल कला दृष्टि। 

"कथक दिग्दर्शन" पुस्तक बताती है कि बिरजू महाराज का असल नाम दु:खहरण नाथ मिश्रा था। उनकी अम्मा उन्हें इसी नाम से बुलाती थी। बाद में वह बृज मोहन नाथ मिश्रा और अंतत: बिरजू महाराज से जाने गए। यह पुस्तक और भी बहुत अनछूए पहलू हमारे सामने लाती है। मसलन पुराने जमाने में कथक में वंदना केवल गाकर होती थी, पर यह बिरजू महाराज थे जिन्होने वंदना को नृत्य संरचना में ढाला। बिरजू महाराज ने कथक को 'अंग काव्य' के जरिए नई भाषा भी दी। अमूर्त नृत्त हस्तकों के नामकरण किए। कथक में छंद काव्य की पहल कर उसे सांगीतिक रूप में समृद्ध किया।

'कथक दिग्दर्शन' बिरजू महाराज का अनुभव संचित ज्ञान है। यह बताती है कि कैसे कथक कथा वाचन से आधुनिक युग तक पहुंचा।  कैसे तरानों, सरगम, गज़लों पर इसमें नृत्य आरंभ हुआ। बिरजू महाराज लिखते हैं, 'दरबारी काल में कथक लोगों द्वारा तिरस्कृत हुआ। विलासिता का साधन समझा जाने लगा पर यह भी सच है और वास्तविकता भी कि दरबारी कथक नवीन विचारों से समृद्ध और अलंकृत भी हुआ।'

बिरजू महाराज के जीवन पर जाते है तो अचरज होता है कि कैसे कोई कला की गहराई में डूब—डूब अपने को विसर्जित कर देता है। वह लिखते हैं, 'लय ताल की एक धुन होती है। यह लगी रहनी चाहिए। चैतन्य महाप्रभु अपने लिए गाते बजाते थे, उसी तरह मैं भी अपनी धुन में, अपने लिए नृत्य करता। केवल दूसरों को खुश करने के लिए नहीं।' अपने अनुभवों में उन्होंने नृत्य कलाकारों को सीख दी है कि 'कला की गहराई में जाएं और समझ कर आनंद लें। मैंने बहुत चिंतन—मनन के बाद प्रकृति के तत्वों को मंच पर प्रस्तुत किया।' उनके इस कहे के आलोक में विचारेंगे तो यह भी पाएंगे नृत्य गति का आख्यान है। वहां अपने आत्म का ही नहीं देह का भी कलाकार जब विसर्जन कर देता है तब कहीं अपूर्व घटता है। बिरजू महाराज ने ऐसा ही तो किया था। उनके नृत्य में कहन की जीवंतता और स्वर-पद-ताल का समवाय ऐसा होता था जिसमें नर्तक-दर्शक का भेद मिट जाता था। 

बिरजू महाराज नर्तक ही नहीं थे, बहुत मीठा गाते भी थे। कलाओं की उनकी उपमाएं भी तो आकाश रचती थी। जरा उनकी सूक्ष्म सूझ से जुड़ी उपमाएं देखें, ‘तबला और घूंघरू नायक-नायिका है।’, ‘जुगलबंदी और कुछ नहीं है, लुकाछुपी  और छेड़खानी, प्यार भरी अठखेलियों का खेल या कहें मेल है।’ ‘नृत्य में ‘तत्कार’ चरम गूंज है। सृष्टि का अनंतनाद! ’ 

'कथक दिग्दर्शन' पढेंगे तो कथक ही नहीं कलाओं की गहरी समझ से भी हम औचक साक्षात होने लगते है। सरकारी प्रकाशनों की अपनी सीमाएं होती है, पर यह सुखद है कि संगीत नाटक अकादमी ने 'कथक दिग्दर्शन' को बहुत जतन से सुंदर—सधे रूप में प्रकाशित किया है। पढ़ते हुए बार—बार यह खयाल भी आता रहा कि शोध फैलोशिप में एक बड़ा हिस्सा कलाकारों का ही होना चाहिए। वे अपने कला—अनुभव इसके जरिए साझा करें। जीते जी किंवदंती बने कलाकारों का जीवन आलोक यदि बजरिए इस तरह की शोध फैलोशिप से सार्वजनिक सुलभ होता है तो इससे बड़ी उसकी सार्थकता और क्या होगी! प्राय: होता यह भी है कि किसी कलाकार की जीवनी कोई दूसरा लिखता है तो उसे इतना अलौकिक, अद्भुत कर देता हैं कि कला और कलाकार की वास्तविकताएं गौण हो जाती है। इस दृष्टि से यह पहल स्तुत्य है। क्या ही अच्छा हो, इस तरह की पहल दूसरे कला—क्षेत्रों में भी हो।


Friday, March 14, 2025

साहित्य अकादेमी, दिल्ली के साहित्योत्सव 2025 में व्याख्यान

साहित्य अकादेमी के 'साहित्योत्सव 2025' में उद्घाटन सत्र के दिन उत्तर—पूर्वी और पश्चिमी भारत की लोक संस्कृति विषयक व्याख्यान देने जाना हुआ...

बहुत कुछ नया पाया। लोक—आलोक लिए।   अरसे बाद कुछ अग्रजों से, बहुत से आत्मीय मित्रो से मेल—मुलाकात भी संपन्न करने वाली रही...साहित्य के बाजारू उत्सवों से यह अपने ढंग का सहज—सुनियोजित उत्सव होता है। भारत—भर के साहित्य की सुगंध लिए...






Sunday, March 9, 2025

अमूर्तन में संस्कृति का लोक-आलोक

पत्रिका, 8 मार्च 2025

कलाएं सभ्यता और संस्कृति का अमूर्तन रचती है। जो शास्त्र में, शब्द में समाए इतिहास में नहीं है वह कई बार कलाएं थोड़ी सी रेखाओं और रंगों में कह देती है। बुद्ध मूर्ति पूजा के विरोधी थे, पर संसार भर में उनकी करुणामय मूर्तियों का आकर्षण आज भी कायम है। पहले उनकी मूर्तियां नहीं बनती थी, छत्र, कर, पद कमल आदि प्रतीकों में ही उनकी विचार दृष्टि का निरूपण होता था। हीनयान तक बुद्ध प्रतीकों से ही व्यंजित होते रहे। महायान के बाद उनकी मूर्तियां बनने लगी। बुद्ध माने जागृत। वह जो ज्ञान संपन्न है। बुद्ध की मूर्तियां असल में इस विचार का ही तो आलोक है। 

हमारी लोक चित्र शैलियां प्रतीक, बिंबों में ही सदा रुपायित हुई है। इनकी गहराई में जाएंगे तो पाएंगे यथार्थ का हुबहू वहां अंकन नहीं है। कलाकारों ने अपने अंतर्मन के विचारों को वहां रुपायित किया है। सृष्टि की उत्पति, रहस्य, जीवन से जुड़े विचार, इच्छाएं सब कुछ तो वहां रेखाओं में मिलते हैं। भूरी बाई के चित्र,उड़ीसा के पट्टचित्र, बिहार के मधुबनी के चित्र, राजस्थान में सांझी आदि के चित्र भी तो अर्थगर्भित है। इन्हें तो फिर भी हमारी जानी पहचानी कथाओं से हम समझ लेते हैं पर जन जातीय कलाओं में अमूर्तन का इतिहास कौन लिखेगा और लिखा जो है, उसे बाँचने की सामर्थ्य हम में कहां है! देशभर की कला दीर्घाओं, संग्रहालयों और लोक कलाकारों के मध्य जाकर, संवाद कर, अध्ययन से जो जानकारियां जुटाई तो पाया लोक कलाकार भी किसी दार्शनिक से कम नहीं होते हैं। वे बिंदु से रेखाएं बना सृष्टि के अन्नत रहस्यों से हमें जोड़ते हैं। वे जो बनाते हैं, उनके रेखांकन पर जाएंगे तो बहुत कुछ महत्वपूर्ण पाएंगें। सीधी खड़ी रेखा वहां गति और विकास की द्योतक है तो आड़ी या पड़ी रेखा प्रगति और स्थिरता की। तिरछी रेखा आगे बढ़ने के भाव दर्शाती है तो तरंगायित रेखा प्रवाह की प्रतीक। एक दूसरे को काटती रेखा विरोध, संघर्ष और युद्ध की सूचक मिलेगी तो तीर की तरह बढ़ती रेखा पूर्ण विकास की द्योतक। बिंदु से ही त्रिकोण की उत्पत्ति होती है। त्रिकोण प्रायः तीन देवताओं ब्रह्मा, विष्णु और महेश, तीन देवियों महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली की प्रतीक होती है। इसी तरह यह तीन गुणों सत्, रज और तम, तीन शक्ति ज्ञान, इच्छा और क्रिया, तीन काल-भूतकाल, वर्तमान और भविष्य, तीन अनुभूतियों-सत्, चित् और आनंद से भी जुड़ा होता है। अपने आधार पर खड़ा उर्ध्वमुखी त्रिकोण पर्वत, अग्नि और शिव का प्रतीक होता है तो अधोमुखी त्रिकोण जल और शक्ति अथवा पुरूष और स्त्री-मिलन से सृष्टि का प्रतीक होता है। 

खजुराहों में मध्यप्रदेश सरकार ने आदिवासी संग्रहालय बनाया है। जनजातीय कलाकारों की कलाओं को समझने का यह विरल स्थान है। पिछली बार खजुराहों नृत्य समारोह में जब एक व्याख्यान के लिए जाना हुआ तो लोककला विद अशोक मिश्र जी के आग्रह पर वहां भी गया। देखा, मध्य प्रदेश के अमरकंटक से निकलकर गुजरात के भरूच के पास खंभात की खाड़ी में मिलने वाली पवित्र नर्मदा नदी की हजारों लाखों किलोमीटर प्रवाह की पूरी यात्रा दीवार के एक चित्र में आदिवासी कलाकारों ने उकेर दी है। नर्मदा नदी नहीं, उसकी पद परिक्रमा की संस्कृति का यह इतना मोहक दृश्य आख्यान है कि मन करता है इसे देखे और बस देखते रहे। नर्मदा के इस चित्र को देखते मन मंडला, जबलपुर, नर्मदापुरम, ओंकारेश्वर, महेश्वर की सहस्त्रधारा पहुंच वहां स्नान करने मचल उठता है। लोक का यही आलोक है। आप चित्र देखते हैं और उसके उकेरे समय में रूपांतरित हो जाते हैं। लोक कलाकार अमूर्त में दृश्य संग अदृश्य की जो अनुभूतियां कराते हैं, उन तक पहुंचेंगे तो भारतीय कला के एक और अज्ञात, अनछुए सच से हम साक्षात हो सकेंगे। 
असल में लोक कलाएं ही नहीं, सारी की सारी भारतीय कलाएं अर्थ का भार कहां ढोती है! भरतमुनि का नाट्यशास्त्र कलाओं का सर्वांग है। इसमें आता है, ऋग्वेद से पाठ, यजुर्वेद से अभिनय, साम से संगीत और अथर्व से रस लिया। रस वहां से क्यों? इसलिए कि अथर्व वेद मन से जुड़ा है। जादू टोना, वशीकरण, तंत्र, मंत्र आदि सब इसी में है। कलाओं में रस का आधार यही है। रस व्यंजित नहीं किया जा सकता। अदृश्य, अवर्णनीय जो होता हैं। भारतीय कला का यह अमूर्त ही लोक का आलोक है। आप क्या कहेंगे!

Monday, March 3, 2025

दिक्-काल को संबोधित कला के एक युग का अवसान

हिम्मत शाह का बिछोह दिक्-काल को संबोधित कला के एक युग का अवसान है। इस दौर के वह अप्रतिम कलाकार थे। अंतिम समय तक सक्रिय रहकर कलाओं में रमने वाले, जोड़-तोड़ से दूर अपने एकाकीपन में निरंतर सृजन में सुख तलाशने वाले। कुछ दिन पहले की ही बात है। उनके घर पर लम्बा संवाद हुआ था। दूरदर्शन के कला-केन्द्रित अपने कार्यक्रम ’संवाद’ में बातचीत के लिए उन्हें राजी किया था। वह बार-बार कहते रहे, ’अभी तो सीख रहा हूं। बहुत कुछ करना है। पर आपसे बात करूंगा। ठंडी थोड़ी कम हो जाए। फिर ठीक रहेगा।’ मार्च के प्रथम सप्ताह में बातचीत के लिए वह तैयार हो गए थे। पर यह समय आता उससे पहले ही वह अनंत की यात्रा पर निकल गए। उनसे जब-तब अनौपचारिक लम्बी बातें होती रही है।  एक मासूम बचा उनके भीतर था, जो अभी भी बहुत कुछ और करना चाहता था। इस दुनिया को सर्वथा अलग ढंग से देखना और दिखाना चाहता था। ऐसा कुछ रचने को आतुर जो अब तक किसी ने नहीं रचा है। मुझे लगता है, हिम्मत शाह की यह भीतर की अकुलाहट ही उनके सृजन का मूल थी। हर बार उन्होंने नया सिरजा। याद है, जब वह नब्बे के हुए तो उन्होंने अपनी वर्षगांठ अपने नव निर्मित हो रहे स्टूडियो में मनाई थी। एक दिन पहले ही फोन कर वत्सल आदेश दिया था कि कुछ भी हो उसमें तुम्हे रहना है। दिल्ली से किरण नादर म्यूजियम ऑफ आर्ट की रूबीना, ख्यात कलाकार जी.आर.इरन्ना, अहमदाबाद से उनकी छोटी सगी बहनें भी आई थी। नया स्टूडियो निर्माणाधीन था पर वह नब्बे की वय में भी उत्साह से उसमें काम करने के लिए मचल रहे थे।

अमर उजाला, 3 मार्च 2025
हिम्मत शाह जड़ता से परे थे। उनकी कलाकृतियों में भी कहीं कोई एकरसता नहीं रही। अपने सिरजे मूर्तिषिल्प, रेखांकन और संस्थापन में देखने वालों को सदा ही वह नया कुछ सौंपते रहे। उन्हें कलाकृतियां सिरजते देखने का अनुभव भी अद्भुत था। मूर्तिषिल्प, रेखांकन रचते हुए वह अपने आपको भी भुल जाते थे। ...और कुछ सृजित हो जाता तो इतना उत्साहित हो उठते, उमंग से भर जाते कि बच्चे की तरह उछल-कूद करने लगते थे। कहते, ’षू..कितना अद्भुत हुआ है।’ एक दफा रविवार को घर आ गए। कुमार गंधर्व की सीडी लेकर आए थे। हमने साथ सुनी। सुनते रहे और औचक हिम्मत जी नृत्य करने लगे थे। वह ऐसे ही थे, मन से निर्मल। निष्छल। कोविड के समय पूरा विष्व थम गया था, पर वह रेखांकन कर रहे थे। तीन सौ के करीब उन्होंने तब कलाकृतियांे सिरजी। बाद में नई दिल्ली स्थित बीकानेर हाऊस और आर्ट मैग्नम में ‘अंडर द मास्क’ शृंखला से चयनित कुछ कलाकृतियों प्रदर्षित हुई। रघुराय उनके करीबी रहे हैं। उन्होंने हिम्मतषाह की कला-साधना में रत भांत-भांत की छवियों को ’थ्रू द लेंस ऑफ हिम्मतषाह’ में संजोया है। उन्होंने कहा भी है, हिम्मत शाह की कलात्मक यात्रा को देखना और सहेजना मेरे अनुभवों की विरासत है।’ 

हिम्मतषाह दस वर्ष की वय में सृजन से जुड़ गए थे। जैन व्यापारी परिवार से वह आते थे पर परिवार के व्यवसाय में उनका मन नहीं रमा और जेजे स्कूल ऑफ आर्ट, बॉम्बे और फिर एमएस यूनिवर्सिटी, बड़ौदा में उन्होंने अध्ययन किया। वर्ष 1967 में फ्रांसीसी सरकार की छात्रवृत्ति पर दो साल के लिए पेरिस गए। वहां एटलियर 17 में प्रिंटमेकर एसडब्ल्यू हेटर और कृष्णा रेड्डी के अधीन अध्ययन किया। हमारे यहां इन्स्टॉलेषन का दौर बहुत बाद में आया। हिम्मत शाह ने पचास के दषक में ही ’बर्न पेपर कोलाज’ जैसा महती इन्स्टॉलेषन किया था। कला में नया कुछ तलाषने के लिए कभी वह राजस्थान के गांव-गांव घूमे थे। इस भ्रमण से उन्होंने ’होमेज टू राजस्थान’ शृंखला सिरजी, जिसे बाद में इब्राहिम अल्का जी ने खरीद लिया था। वास्तुशिल्प भित्ति चित्र, चित्र और टेराकोटा और कांस्य में अमूर्तन का इतिहास रचा। मिट्टी की मूर्तियों में उभार, बल और रस्सी जैसे रूपाकारों में उनका टैक्सचर विरल है। अपने सृजन के काम आने वाले, मूर्ति तराशने, आकार देने और ढालने के लिए कई तरह के हाथ के औजारों, ब्रश और उपकरणों को उन्होंने खुद ईजाद किया। कईं बार इन उपकरणों को देख उनसे पूछता तो वह कहते, मैंने कुछ न्हीं किया, अपने आप ही बन गए। सीमेंट और कंक्रीट में भित्ति चित्र भी उन्होंने निरंतर सिरजे। वह ग्रुप 1890 के संस्थापक सदस्य थे। साठ के दषक में हिम्मतषाह, राघव कनेरिया, एम.रेड्डीप्पा नायडू, अंबादास, राजेश मेहरा, गुलाम मोहम्मद शेख , जगदीश स्वामीनाथन, जेराम पटेल, एसजी निकम, एरिक बोवेन , ज्योति भट्ट और बालकृष्ण पटेल ने साथ मिलकरयह कला-समूह बनाया था। इस समूह की प्रदर्षनी पर तत्कालीन मैक्सिकन राजदूत और सुप्रसिद्ध कवि ऑक्टेवियो पाज ने ’सराउंडेड बाय इनफिनिटी’ शीर्षक से लिखा कि यह प्रदर्शनी नए समय का एक संकेत है, एक ऐसा समय जो आलोचना के साथ-साथ सृजन का भी होगा। इन कलाकारों के साथ कुछ अनमोल पैदा हो रहा है।’

यह समूह तो बाद में बिखर गया परन्तु हिम्मतषाह ने अनमोल रचना-कर्म उम्रपर्यन्त जारी रखा। सर्वेष्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा और अपने समय के महती कवियों ने उनकी सिरजी कलाकृतियों पर अपने दौर में कविताएं लिखी। एक सप्ताह पहले जब उनका फोन आया तो भविष्य की ढेर सारी योजनाआंे के बारे में वह बताने लगे थे। कहने लगे, ’स्टील आई एम यंग।’ बहुत उत्साह से उन्होंने तब नए षिल्प पर किए जा रहे अपने कार्य को दिखाया था। इसे उन्होंने शीर्षक दिया-’एंटायर द सिटी’। मिट्टी में सिरजे सूक्ष्म षिल्प। मुझे लगा यह शहरों में बसते और दूसरे शहरों की गाथा है। 

वह किसी एक माध्यम से कभी जुड़कर नहीं रहे। चित्रकृति बनायी है तो किसी खास विषय, विचार को उसमें संप्रेषित नहीं करते हुए वह उसमें सदा कुछ नये की तलाश करते रहे हैं और मूर्तिषिल्प सिरजे हैं तो वह भी पारम्परिक आकारोें की ऐकमेकता से मुक्त रहे हैं। उनकी सामग्री, माध्यम और तकनीक निरंतर बदलती रही है। पहले पहल उन्होंने जब चित्रकृतियों का सृजन किया तो उनमें देखने वालों ने मूर्तिशिल्प की तलाश की और बाद में जब उन्होंने बड़े-बड़े रिलीफ बनाए तो उसमें ड्राइंग को ढूंढा गया। ठीक-ठीक बाद के उनके स्क्ल्पचर में भी रेखाओं, ग्राफिक्स और कला का बहुत कुछ ऐसा तलाशा गया जो अभी तक अव्याख्यायित ही है। उनकी पेंटिंग, उनके मूर्तिशिल्प में बेहद सूक्ष्म अनुभव प्रतीतियां हैं। भले इन्हें कला की किसी खास परम्परा और शैली के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता परन्तु हिम्मत शाह ने जो किया, वह कला में सर्वथा अद्भुत, अपूर्व रहा है। खंड खंड अखंड उन्होंने रचा।

जे. स्वामीनाथन ने हिम्मतशाह के बारे में कभी लिखा था, ‘...मानो कोई सौम्य जादूगर अचानक हमारे कपड़े गायब कर दे ताकि हमें अहसास हो सके कि कपड़ों के नीचे हम सभी नंगे हैं और बेलौस कांपते हुए खड़े हों हम...कि मुस्कराता हुआ हिम्मत वहां मौजूद है और हमें हमारी सौम्यता खतरे में नहीं है का विश्वास दिला रहा है।’ स्वामीनाथन के इस कहे के साथ मैं यह और जोड़ देता हूं कि कला के इस दौर में जब रचनात्मकता के स्तर पर नये कुछ की जगह सब जगह एक सा मूर्त-अमूर्त काम दिखाई दे रहा है, हिम्मतशाह के आशयहीन रूपाकार कला में अभी बची अनंत रचनात्मकता के प्रति विश्वास दिलाते हैं। 

अंतिम बार जब मिला तो तरोताजा लग रहे थे। अपने स्टूडियों में ही रूकने का आग्रह कर रहे थे। अपनी स्मृतियां के संसार में ले जाते वह बार-बार कह रहे थे, ’मैंने सबको छोड़ दिया। अपने को  ढूंढने के लिए सबको छोड़ना पड़ेगा।’ हिम्मत जी ने हमें छोड़ दिया। अपने आपको तलाषने इतनी दूर चले गए है कि हम उनसे बहुत पीछे छूट गए हैं। विदा, हिम्मत जी। नमन!



भारतीय कला की वैश्विक पहचान थे हिम्मत शाह


विदेश में आज भी भारतीय कलाओं की पहचान अमृता शेरगिल, हुसैन, रजा के साथ जिस प्रमुख कलाकार से जुड़ी है, वह हिम्मत शाह थे। मूलतः वह गुजरात के थे। पर पिछले कोई 25 सालों से वह यहीं, राजस्थान आकर बस गए थे। राजस्थान बसने के पीछे भी संभवत: 1989 में की गई उनकी यहां की वह यात्रा ही थी जिसमें उन्होंने गांव—गांव, ढाणी ढाणी घूमकर लोक कलाओं, आदिवासी और जन जातीय कलाओं से निकटता स्थापित की। राजस्थान यात्रा के इन अनुभवों को बाद में उन्होंने माटी शिल्प शृंखला 'होमेज टू राजस्थान' में रूपायित किया। इब्राहिम अल्काजी को यह इतनी भायी कि उन्होंने इन कलाकृतियों की प्रदर्शनी की, इन्हें खरीद लिया। हिम्मत जी को भी राजस्थान इतना पसंद आया कि वह यहीं जयपुर आकर बस गए। इस दौरान उनसे निकट का नाता स्थापित हुआ जो अंतिम समय तक कायम रहा। हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय का भवन जब बन रहा था तो इसके तत्कालीन कुलपति ओम थानवी जी चाहते थे, नव निर्मित भवन में हिम्मत शाह का शिल्प भी हो। ओमजी के आग्रह पर तब हिम्मत जी से मिलाने उन्हें उनके घर ले गया था। पर बात बनी नहीं। ठहरकर, कहीं कोई सुनियोजित वह नहीं करते थे। जो उन्होंने सिरजा अप्रत्याशित, अपनी मर्जी से और जब चाहा तभी सिरजा।

पत्रिका, 3 मार्च 2025

ललित कला अकादेमी की पत्रिका 'समकालीन कला' का जब अतिथि सम्पादक बना तो आवरण कलाकृति हिम्मत शाह की ही प्रकाशित की। बाद में राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी से मेरी पुस्तक 'भारतीय कला' प्रकाशित हुई तो हिम्मत जी को मौजूद रहने को कहा। वह आए और मेरी कला पर बोले भी। जब वह 90 की उम्र के हुए तो एक सांझ उनका फोन आया। आदेशात्मक स्वर था, 'कल मेरी वर्षगांठ है। नया स्टूडियो बनवा रहा हूं। आपको आना ही है।' अचरज हुआ! इस उम्र में व्यक्ति घर बनाने से, निर्माण कार्य से निवृत होता है और हिम्मत शाह जो थे, कला का नया वास बनाने जा रहे थे। दिल्ली से किरण नादर म्यूजियम ऑफ आर्ट की रुबीना और मशहूर कलाकार इरन्ना आए हुए थे। नये बन रहे स्कल्पचर स्टूडियो में ले जाते वहां काम की भावी योजनाएं उन्होंने बताई। उन्होंने कहा, 'स्टील आई एम यंग।' वह एक आर्ट कॉलेज खोलना चाहते थे जिसमें बच्चों को याद करना नहीं भुलना सिखाया जाए। अक्सर संवाद में वह कहते, ' जिसने पक्षी को उड़ते नहीं देखा, वह हवाई जहाज के बारे में नहीं सोच सकता। बस देखो, सोचो मत।' उनके पास कला की अदम्य ऊर्जा थी। बानवे वर्ष की उम्र में भी नित नए माध्यमों में उन्हें काम करते देखता। वह मूर्ति में में रेखांकन करते रूपाकारों के भीतर की खोज करते। रूपाकारों में टैक्सचर, स्थापत्य और शिल्प को उन्होंने साधा। कभी उन्होंने यौन प्रसंगों से संबंधित रेखाकृतियों बनायी। पर जल्द ही वह इनसे मुक्त हो गए। उनके हैड्स विश्वभर में सराहे गए। पारम्परिक भारतीय स्थापत्य, पश्चिम की कला के साथ ही लोककलाओं की बहुतेरी छवियों की छटाएं उनकी कलाओं में सदा ही अनुभूत की। कोविड के दौर में उन्होंने 'अण्डर द मास्क' शृंखला से रेखांकन किए। संस्थापन कला के अंतर्गत 'बर्न पेपर कॉलाज' तो पचास के दशक में ही उन्होंने कर दिया था। टेराकोटा, कांस्य, सिरेमिक, संगमरमर, पेपर मैशी, लकड़ी जैसे माध्यमों में भी उन्होंने शिल्प सिरजे। अंत तक सिरजते रहे। 

उनके भीतर एक मासूम बच्चा बसा हुआ था। कोई दो माह पहले घर आ गए। घंटो बातचीत करते रहे। कलाओं पर और उससे इतर साहित्य, संगीत, नृत्य पर भी। इधर बार—बार उनका फोन आता आता और अपने नए स्टूडियो में बुलाते। उनका मन था, नए स्टूडियों में ही शहर से दूर उनके साथ दो—तीन दिन रहता। ढेर सारे उनके अनुभव सुनता। पर यह संभव नहीं हो पाया। पर, एक सप्ताह पहले उनके आग्रह पर घर गया था तब घंटो बैठ बातें हुई। उन्होंने तभी 'नाइन्टी एण्ड आफ्टर' और 'हिम्मत शाह : इनोसेंस एण्ड क्रिएटिविटी' दो पुस्तकें भेंट की थी। कहा, तुम्हारा 'पत्रिका' में प्रकाशित कॉलम निरंतर पढ़ता हूं। अच्छा लगता है।  'नाइन्टी एण्ड आफ्टर' पुस्तक पर उन्होंने लिखकर दिया, 'विद लव : हि इज ए वन आफ बेस्ट राईटर आन आर्ट'। अनायास ही बहुत बड़ा पुरस्कार उन्होंने प्रदान कर दिया था। वह नहीं है, पर कला में और सृजन में अपने आपको भुलकर सिरजने की उनकी सीख रह—रह कर स्मृति में कौंध रही है। उनका होना हिम्मत देता था। यह भारतीय कला की एक सशक्त कड़ी से बिछुड़ना है। नमन, हिम्मत जी। नमन!


Saturday, February 22, 2025

अनुकरण नहीं अनुकीर्तन हैं कलाएं

पत्रिका, 22 फरवरी, 2025

भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में नाटक को लोक का अनुकरण नहीं अनुकीर्तन कहा गया है। माने जो कुछ हुआ है या हो रहा है—उसका कथन। उसकी व्याख्या। यथार्थ को हुबहू व्यंजित किया भी कैसे जा सकता है! नाट्य ही नहीं संगीत, नृत्य, चित्र आदि दूसरी कलाएं भी यथार्थ की प्रस्तुति नहीं उसका संवेदना कहन ही होता है। संवेदना नहीं होगी तो वहां कला नहीं होगी। कलाएं संवेदना, भाव और रस का संयोजन है। एब्सट्रेक्ट या अमूर्त कहां कुछ होता है! जो होता है, उसमें रूप ही बसा होता है। 

चित्रकला की ही बात करें, हुबहू का चित्रण तो कैमरा भी कर देता है। फिर कैनवस पर रंग रेखाओं से रूप सृजन की क्या जरूरत! असल में जिसे एब्सट्रेक्ट कहकर यूरोप की कला—देन कहा जाता है, भारत तो आरम्भ से ही इससे जुड़ा रहा है। हमारे यहां कलाएं बाह्य से अधिक आंतरिक दृष्टि की मांग करती है। शुक्रनीति सार में मूर्ति देखने और उससे एकमेक होने के लिए ध्यान के ज्ञान की बात कही गई है। मंदिर में मूर्ति का बाह्य स्वरूप ही कहां होता है! वहां दैवीय स्वरूप होता है जिसे ध्यान से साधा जाता है। कलाएं सिरजे जाने में ही नहीं देखे जाने में भी इसी ध्यान की मांग करती है।  एब्सट्रेक्ट या नॉन फिगरेटिव के लिए अमूर्त ठीक शब्द नहीं है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में इसके लिए बहुत सुंदर शब्द आया है, "स्वप्रतिष्ठ"। माने किसी कलाकृति मे पूरा यथार्थ नहीं, पूरा दृश्य नहीं उसका भाव—भव, सार—रूप प्रदर्शित किया जाए। रंग और रेखाओं की भाषा में लय की साधना। एब्सट्रेक्ट में क्या होता है? दृश्यों, अनुभूतियों और स्मृतियों का खंड—खंड में अखंड ही तो रचा जाता है। ऐसी कलाकृति जो हमारी संवेदना को निरंतर जगाती है। हर बार अलग अलग अर्थ में देखने को जो आकृष्ट करे, वही एब्सट्रैक्ट या अमूर्त  और रूप का स्वप्रतिष्ठ संयोजन है। 

चित्रकला के जो छ: भेद बताए गए हैं उनमें सादृश्य के साथ भाव और लावण्य के संयोजन की बात कही गयी है। इनमें वर्णिकाभंग रंगों का वस्तु यथार्थ जगत के हिसाब से भराव है। रंगों की, रेखाओं की उपस्थिति  से संवेदनाओं का निरूपण वहां होता है। प्रकृति और जीवन का हुबहू नहीं भावों से, निहित रस से अंकन! लोक और आदिवासी कलाओं की हमारी पूरी की पूरी परम्परा प्रतीक—बिम्बों में आधुनिक कही जाने वाली एब्सट्रेक्ट कला ही तो है। वहां हूबहू की बजाय खड़ी, तिरछी, समतल रेखाओं, पिरामीड, त्रिभुज आदि से, अलंकरणों से, मांडणों से कथा—कहानियों का विरल चित्रण ही तो होता है। पर उसका मूल्यांकन भारतीय दृष्टि से हमने इसीलिए नहीं किया कि हमने समीक्षा की दृष्टि पश्मि से पाई है। जो दृष्टि ही बाहर की है, उसमें अंतर—आलोक की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?

जे.जे. स्कूल आफ आर्ट के शिक्षक और ख्यात कलाकार गणेश तरतरे ने भारतीय कलादृष्टि को इधर विरल सांगीतिक अर्थ दिए है। उनकी अपनी रंग—भाषा है, जिसमें दृश्य का मनोरम है। एक रंग दूसरे में घूलकर, कैनवस की तह पर प्रवाहित होकर या फिर कहीं किसी सतह पर ठहर कर उनकी कलाकृतियां अनगिनत आशय के गवाक्ष खोलती हैं। एक साथ कैनवस पर बहुत से रंग वह बरतते हैं, पर औचक किसी रंग का अपना अस्तित्व उभरने लगता है और अनुभूत होता है वहां संगीत की गमक सरीखा अलंकृत कुछ हमने पा लिया है। कोई एक रंग कहीं इतना अधिक प्रवाहमय होता बहा चला जा रहा है कि उसके आलाप में हम अंतर्मन मौन से जुड़ जाते है। औचक वहां दूसरे और तीसरे की रंग—छटा मींड बन हमारी चेतना को उत्सवधर्मी बना देती है। कोई रंग इतना चटख नहीं है कि आप पर हावी हो जाए और कोई इतना हल्का—अलोप भी नहीं है कि उसकी उपस्थिति ही हम खो बैठे। धवल के भीतर भी एक और धवल या कि पीले के भीतर, नीले और हरे रंग के भीतर भी कैसे—कैसे कितने ही वैसे ही और रंग बसते हैं। चित्रों को देखते बहुतेरी बार स्वस्तिक, यज्ञ और उसके धूंए संग पसरी सुगंध हममें समाती है। आकार का यही तो वह निराकार है जिसमें रंग—रूपायित होते अव्यक्त की ढेर सारी अर्थ संभावनाओं से हमें जोड़ते हैं। रंगान्वेषण में अमूर्तन की भारतीय कला—दृष्टि लिये है, तरतरे की कलाकृतियां।



Saturday, February 8, 2025

कलाओं से रसिकता जगाती पुस्तकें

 

पत्रिका, 8 फरवरी 2025

राजधानी दिल्ली में चल रहा विश्व पुस्तक मेला रविवार को संपन्न हो जाएगा। विश्व पुस्तक मेले का इस अर्थ में विशेष महत्व है कि वहां तलाशने पर कलाओं पर दुर्लभ और स्तरीय पुस्तकें भी मिल जाती है। अव्वल तो कलाओं पर पुस्तकें ही बहुत कम हैं। जो थोड़ी बहुत प्रकाशित होती है वह या तो अकादमिक घेरे में पाठ्य पुस्तकों सरीखी होती हैं या फिर अंग्रेजी का खराब अनुवाद लगती इतनी बोझिल होती है कि उन्हें पढ़कर कलाओं से रसिकता की बजाय विरक्ति अधिक होती है। 

कोई भी पुस्तक यदि सूचनात्मक ही है तो उसके प्रकाशन का कोई अर्थ नहीं है। पुस्तकें यदि कलाओं के प्रति रसिकता जगाती है, कलाकारों को समझने में मदद करती है और बजरिए शब्द, कलाओं से संवाद कराती है, तभी उनकी सार्थकता है। इस दृष्टि से कुछ समय पहले पढ़ी अशोक जमनानी की 'मेरे स्पिक मैके के दिन' महत्वपूर्ण है। पुस्तक नहीं असल में यह कलाओं में रचे—बसे मन की रस—गाथा है। कहने को संस्मरण, पर भारतीय संगीत, नृत्य, नाट्य में गूंथी सुगंध इसमें समाई है। किस्से—कहानियों, अनुभूतियों की आंच में इसे पढ़ते अनायास ही मन नृत्य की भंगिमाओं, घुंघुरूओं के गान, संगीत की स्वर लहरियों और लोक के आलोक में नहाने लगता है। शब्द—शब्द कला—दृश्य लिए इसमें रूद्र वीणा की विरल गमक है तो 'गुरु' शब्द में समाए गुरुकुल का वह मथा अर्थ भी है जिसमें कोई कलाकार प्रस्तुति में ही नहीं आचरण में भी आदर्श की स्थापना करे। कला और कलाकारों के अनछूए पहलुओं संग कला—रसिक मन इसमें पढ़ने वालों से बतियाता है। 

नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने इधर भारतीय लघु चित्र शैलियों को अपने लिखे से पुनर्नवा किया है। उनकी कला—व्याख्याएं इसलिए भी लुभाती है कि वहां पर कहन का लालित्य है। कला—सौंदर्य में रचे—बसे मन से उन्होंने भारतीय कलाकृतियों में राधा के रूपांकन पर महती कार्य करते 'राधा—रूपायन' जैसी महती कृति हमें सौंपी है तो 'भारतीय कला और अंतरानुशासन' जैसी पुस्तक के जरिए कलाओं के अंत:संबंधों के साथ उनकी सूक्ष्म तत्व विवेचना की है। पहाड़ी चित्र शैली के अप्रतिम कलाकार नैनसुख पर और 'गीत गोविंद' के आलोक में लघु चित्र शैलियों की भारतीय परम्परा पर उनका काम कला—लेखन को नए आयाम देने वाला है।

अशोक भौमिक बहुत अच्छे कलाकार हैं। उनकी कला—दृष्टि और चिंतन भी मन को मथता है। उनकी दो कला—पुस्तकें 'भारतीय चित्रकला का सच' और 'चित्रकला, चित्र और चित्रकार' पठनीय और मननीय हैं। कलाकृति में निहित तत्वों, विषय की सांगोपांग विवेचना संग इनमें कला—समीक्षा की धुंध से परदा उठाते कला—चिंतन की नई राहों से भी अनायास साक्षात् हुआ जा सकता है। 'भारतीय चित्रकला का सच' किताब में कलाओं की भारतीय परम्परा के निहितार्थ तो है ही, चित्र और मूर्ति में 'कथा' के बहाने उनके गूढ़ तत्वों की सहज, सरस व्याख्या में उनका गहन अध्ययन संपन्न करता है। यहां कला-परम्परा के बहाने उनकी आधुनिकी के स्वर भी लुभाते हैं। 

हिंदी में साक्षात्कार पुस्तकें तो बहुत हैं परन्तु वे कलाकार और उनकी कलाओं को लेकर कोई धारणा नहीं बनने देती। इस दृष्टि से विनय उपाध्याय ने इधर महती कार्य किया है। उनकी पुस्तक 'सफ़ह पर आवाज' में साहित्य और संस्कृति की जीवंत महक है। गीतकार नीरज के बहाने वह फिल्मी गीतों को लोकगीत कहे जाने का मर्म हमें समझाते है तो पंडित शिवकुमार शर्मा की संतुर साधना, किशोरी अमोणकर के सुरीलेपन और कहन की बेबाकी संग हबीब तनवीर के नाटकों की लोक—आभा में कलाओं की उर्वरता में जीवन के न भुल सकने वाले बिम्ब हमें सौंपते हैं। 

कलाओं की स्तरीय पुस्तकों के अभाव के इस दौर में कवि, संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी की पहल पर पिछले कुछ समय के दौरान महती प्रयास हुए हैं। ख्यातनाम चित्रकार सैयद हैदर रज़ा के स्मृति आलोक में उन्होंने 'रज़ा पुस्तकमाला' के तहत स्तरीय कला—पुस्तकें ही प्रकाशित नही की है, दूसरी भाषाओं की विरल पुस्तकों के भी अनुवाद भी पाठकों को सौंपे हैं। इस शृंखला की पीयूष दईया के सह—संपादन में प्रकाशित पुस्तकों की चर्चा फिर कभी करूंगा।




Saturday, January 25, 2025

सुषमा महाजन की जल—रंग कलाकृतियां



पत्रिका 25 जनवरी, 2025



कुछ समय पहले गुलेर चित्रकला की दो कलाकृतियां मुम्बई में 31 करोड़ में खरीदी गई। इनमें एक अप्रतिम कलाकार नैनसुख की गीत—संगीत सभा विषयक और दूसरी उन्हीं की बाद के पीढ़ी के कलाकार की जयदेव के गीत गोविंद पर आधारित सिरजी कलाकृति है। एब्सट्रेक्ट कला के इस दौर में पारम्परिक भारतीय लघु चित्र कला की यह बाजार—मांग उम्मीद जगाने वाली है।

पारम्परिक भारतीय चित्रकलाएं रंग—रेखाओं की शैलीगत विशेषताओं से ही नहीं विषय—वैविध्यता में भी विरल है। वह विडम्बना ही रही है कि ब्रिटिश का से ही समकालीन विमर्श में पारम्परिक भारतीय कलाएं वैश्विक स्तर उपेक्षित प्राय:  रही है। भारत से बाहर जब 'मुगल कला'  को धर्म से जुड़ा बताते सुनता हूं तो इस बौद्धिक दरिद्रता पर तरस आता है। भारतीय कला मर्मज्ञ आनन्‍द केंटिश कुमारस्‍वामी  कभी स्थापित किया था कि मुगल दरबारों में जो पनपी वही भारतीय कला—शैलियां है। मुगल कला का धर्म से कोई संबंध नहीं है। पश्चिम में आज भी भारतीय संगीत को “एथनो-म्यूजिकोलॉजी" कहा जाता है। माने उनका संगीत आधुनिक है और हमारा पारम्परिक। पश्चिम द्वारा कलाओं की विकसित की गई इसी हीन ग्रंथी ने वैश्विक स्तर पर हमारी कलाओं की समृद्ध परम्परा को प्रचारित नहीं होने दिया है। हमारे यहां कलाओं में मूत—अमूर्त का भेद कभी नहीं रहा है। भारतीय कलाओं में जितना बाह्य सौंदर्य महती है, उससे कहीं अधिक उनका आंतरिक पक्ष है। कलाओ में महत्वपूर्ण वही कहां होता है जो दिख रहा होता है, महती वह होता है जो दिखने के बाद मन में घटता है। 

अभी कुछ दिन पहले ही डॉ. सुषमा महाजन की जल—रंग कलाकृतियों की प्रदर्शनी देखने का सुयोग हुआ। रंग, रेखाओं और टेक्सचर के सुगठित स्थापत्य में उन्होंने जैसे सौंदर्य का जीवन छंद रचा है। अंतर अन्वेषण में जेबरा, बंदर, गिलहरी, पक्षियों की विरल भात भांत की छवियां। एक कलाकृति में तीन घोड़ों के अलग—अलग रंगों में जीवन—गति है। हमारे यहां लोक देवताओं के घोड़ों को 'नीले घोड़े का असवार' कहा गया है। गूढ़ अर्थ है, नीला घोड़ा माने जो गति में आसमान से बातें करे। कलाओं में ही नहीं जीवन में भी कहन का यह गूढ़ पक्ष हमारे यहां महती रहा है। डॉ. सुषमा की कलाकृतियां रंग—संवेदना में प्रकृति में घुले रहस्यों से ही साक्षात नहीं कराती है, प्राचीन मंदिरों, पाषाण मूर्तियों और वास्तु—स्थापत्य को भी देखने का नया संस्कार देती है। हरेक कलाकृति में एक खास एकान्तिका है। कलाकार ने यहां उकेरे दृश्यों, स्थानों को देखा ही नहीं है, मानो पढ़ा है। कुछ इस तरह से कि वह स्थान फिर से हमारी स्मृति में सौंदर्य की एक नई दृष्टि प्रदान करता जीवंत हो जाए। कोणार्क के रथ मंदिर, बीकानेर की हवेलियों  और पहाड़ों पर छाई बर्फ  और पसरा मौन यहां दृश्य में जैसे ध्वनित है। उनकी सभी कलाकृतियों में रंग छंद सरीखे हैं। 

जल—रंगों में उन्होंने ठौड़—ठौड़ स्मृति को जैसे जीवंत किया है। असल में यहां जितना दृश्य है, उतना ही उसमें निहित अदृश्य का मोटिफ है। मसलन गणेश की एक कलाकृति में दूर तक फैला गणेश का कान! रंग—रूप में स्वरों का उजास यहां है। गौर करेंगे तो पाएंगे ग्रामोफोन से निकलते मधुर स्वरों को यहां सुषमा जी ने रूपान्तरित कर दिया है। पारम्परिक मिनिएचर पेंटिंग, लोक कलाओं के प्रतीक—चिन्ह और मांडणे और उनमें समाई सुंदर संरचनाओं से सजा संसार लगभग सभी कलाकृतियों में यहां है। हाथियों की आकृतियां हैं तो सूखे पत्तों, रंगों के धूसर में पार्श्व की मोहक रंग—छटाओं में जीवन के गहरे अर्थ यहां उद्घाटित हुए हैं। कलाएं क्या है? सौन्दर्य का अन्वेषण ही तो! डॉ. सुषमा की कलाकृतियां प्रकृति और जीवन में घुली उत्सवधर्मिता का गान है। रूपकों की दृष्टि—बहुलता में प्रकृति और जीवन का रूपान्तरण! इन पर लिखते हुए पश्चिम की दृष्टि की बजाय भारतीय सौंदर्य—रस की रमणीय दृष्टि में ही जाना पड़ेगा। ऐसा करेंगे तभी अपनी कलाओं से अपनापा होगा। इनकी वैश्विक पहचान भी बन सकेगी। 


Monday, January 20, 2025

भाव—भव में समाहित मार्धुय—छंद

संगीत संगीत क्या है? भाव—भव में समाहित मार्धुय—छंद ही तो! मुझे लगता है, सप्त स्वरों में लय की साधना है संगीत। मास्टर कृष्णराव फुलंब्रीकर को सुन—गुन यही सब मन में आता है। वह स्वर—सिद्ध गायक ही नहीं थे, भावों में गूंथी लय में संगीत को जैसे समझाते हैं। यह भी लगेगा, सहज, सरल और बहुत आसान लगने वाली धुनें उन्होंने सिरजी है, गायी है। पर, धैर्य—धर सुनें। पाएंगे अप्रचलित रागों में भी भावों की विरल सृष्टि उन्होंने की है। 

लता के गाए और उनके संगीतबद्ध 'कीचक वध' फिल्म के 'आज मिलन की रात है' गीत को ही सुनें। एक धुन में कितने—कितने भाव उन्होंने इसमें संजोए हैं! यह फिल्म 1959 में आई थी। मराठी में गीत लिखा था जी.डी.मडलुगर ने और हिंदी में पंडित भरत व्यास ने। संगीत दोनों का मास्टर कृष्णराव का है। सुनेंगे तो यह भी लगेगा वंसत देसाई, सी.रामचन्द्र, सुधीर फड़के आदि कितने ही संगीतकारों ने कितना—कुछ उनसे ही तो पाया है।

दैनिक जागरण, 20 जनवरी, 2025


 मास्टर कृष्णराव ने शास्त्रीय रागों के अप्रचलित को भी प्रचलित किया। स्वर—लय की लूंठी व्यंजना में अभंगों, प्रार्थनाओं व आरतियों के एक ही ढर्रे के संगीत की एकरसता को शास्त्रीय रागदारी के माधुर्य से जोड़ा। शास्त्रीय रागों को विशिष्ट रूप में उन्होंने गाया ही नहीं उनमें निहित भाव—सौंदर्य का आकाश रचा है। इसीलिए मराठी ही नहीं हिंदी और दूसरी भाषाओं में भी उनके गीत बेहद लोकप्रिय हुए, बहुभाषी बने। यह संगीत में विचार—उजास की उनकी दृष्टि ही है जिसमें अप्रचलित जोड़-रागों का विरल स्वर छलका है। तार षड्ज लगाकर ‘जोवन मद भर आई’ सोहनी राग की उनकी बंदिश हो या फिर राग शिवमत भैरव में 'आज मौजूद भये', अनवट राग—गांधारी में 'कन्हैया आवो रे',राग भटियार में 'रैन गई भई भोर' सुनेंगे तो संगीत की दृश्य सृष्टि से भी औचक साक्षात होंगे। 

राग मिश्र पहाड़ी में 'मुरली वाले तुम जवाब दो' सुनेंगे तो पता चलेगा एक ही बोल को कितने कितने रूपों में प्रकटा जा सकता है। मुझे लगता है, आलाप में अलहदा फक्कड़पन, गान की विरल सादगी और जटिल रागों का भी सहज सौंदर्यान्वेषण उनके संगीत की विशेषता है। कम से कम स्वरों और अनावश्यक सांगीतिक जटिलता से अपने को बचाते हुए मास्टर कृष्णराव ने भिन्न रागों की बारीकियों के समन्वय से बहुतेरे मधुर राग भी बनाए।  यह मास्टर कृष्णराव के ही प्रयास थे, जिससे बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के लिखे 'वंदे मातरम' को राष्ट्रगीत की स्वीकृति मिली। 

आरंभ में 'वंदे मातरम्' ही तो हमारा राष्ट्रगान बना था। लोकमान्य तिलक की तो इसमें इतनी श्रद्धा थी कि शिवाजी की समाधि के तोरण पर इसे उत्कीर्ण करवाया था। आजादी आंदोन में भी इसी गीत ने लोगों में निरंतर जोश भरा था पर आजादी बाद राष्ट्रगान बनने के विरोध के चलते कविन्द्र रवीन्द्र के 'जन गण मन' को राष्ट्रगान स्वीकारा गया। 'अंग्रेजो भारत छोड़ो' आंदोलन में मास्टर कृष्णराव ने मिश्र झिंझोटी राग में रचित धुन में इसे विधिवत प्रस्तुत किया। वह अपनी संगीत सभाओं का समापन भी इसी से करते थे। मन में एक मुहिम थी, इसे देश—गान बनाने की। सो संविधान सभा के सदस्यों के समक्ष इसे बार—बार उन्होंने प्रस्तुत किया। सराहना भी मिली। विरोध इस बात पर हुआ कि यह परेड में बजने योग्य नहीं है। 

मास्टर कृष्णराव ने इसके तीन सहज—सरल संस्करण तैयार किए। एक मार्च गीत रूप में, तीसरा नेताओं के स्वागत रूप में और तीसरा राष्ट्रगान रूप में। उनका सांगीतिक प्रदर्शन सबको भाया पर मुस्लिम विरोध की आवाजों में 'जन गण मन' राष्ट्रीय गान स्वीकारा गया। पर मास्टर कृष्णराव असफल नहीं हुए, उनके प्रयासों से ही बाद में 'वंदे मातरम' को राष्ट्र गीत की मान्यता मिली। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने बाद में उनसे ‘बुद्ध वंदना‘ को भी सांगीतिक संरचना में निबद्ध करने का अनुरोध किया। मास्टर कृष्णराव ने बगैर मानदेय बुद्ध वंदना को संगीतबद्ध किया। यह भी बहुत लोकप्रिय हुई। शास्त्रीय संगीत को लोकप्रिय करते, सुगम संगीत में शास्त्रीयता का रस घोलते वह सप्त स्वरों में लय का माधुर्य रचते। राग भैरवी में भी तो उन्होंने नए से नए पद, बंदिशें रच उन्हें इतना सुंदर स्वर दिया कि वह कभी ‘भैरवी सम्राट’भी कहाए। कितना—कुछ विरल है, संगीत का उनका माधुर्य और वैविध्य! लिखें तो शब्द कम ही पड़ेगें।

Saturday, January 11, 2025

'अयन्नार देव लोक' में समाई कला सुगंध

पत्रिका, 11 जनवरी, 2025

भारतीय कलाएं लोकोन्मुखी है। लोक में जो कुछ व्याप्त है, कलाओं ने उसे ही रूपायित किया है। सिंधु घाटी की सभ्यता, कालीबंगा की खुदाई में मिट्टी की गाड़ी, खिलौनों का अपूर्व संसार मृण—मूर्तियों की सुंदर दृष्टि से ही तो हमें जोड़ता है। इतिहास जहां पहुंच नही पाता, वहां लोककलाओं का संसार हमें पहुंचाता है। इसलिए लोक में ही हमने सदा आलोक की राह तलाशी है। 

कुछ दिन पहले ग्वालियर जाना हुआ तो वहां 'अयन्नार देव लोक' के बहाने मृण—शिल्प की हमारी विरल विरासत से साक्षात् हुआ। लगा, प्रचार—प्रसार और व्यावसायिकता की दृष्टि से परे लोक—कला की हमारी समृद्ध थाती से नई पीढ़ी को जोड़ने की यह महती पहल है। लोक कलाओं के संरक्षण की उम्मीद जगाने वाली भी। 

तमिलनाडु के लोक—पूजित ग्राम देवता है—अयन्नार। अयन्नार शब्द अय्या शब्द से उपजा है। माने वह जो श्रेष्ठ—सम्मानित हो। दक्षिण भारत के गांवों में अयन्नार के मंदिरों में उनकी और उनके पूरे कुटुंब, साथियों की घोड़ों या हाथियों पर सवार मूर्तियां प्राय: मिलती हैं। क्रोधी संरक्षक रूप में अय्यनार तांत्रिक प्रतीकात्मकता में भैरव के संग भी होते हैं। कहीं—कहीं उनके साथ उनकी दो पत्नियाँ—पुराणा और पुष्कला भी मूर्तियों में मिलती है। ग्राम देवता के मंदिर के बाहर प्राय: उनके और टेराकोटा के घोड़ों को रखा जाता है। मंदिरों में रखे जाने वाले यह घोड़े इतने सुंदर होते हैं कि अयन्नार बहुत से स्थानों पर पीछे छूट गए, यह घोड़े जग—भर में व्याप्त हो गए। पर आईटीएम विश्वविद्यालय ग्वालियर और बड़ौदा में थंगैय्या आर. और  साथी कलाकारों ने अयन्नार और उनके कुटुम्ब संग सप्त मातृकाओं का भी अलंकृत पर सुहाने शिल्प का संसार रचा है। 

अयन्नार और उससे सबद्ध दूसरे मूर्ति—शिल्प में मिट्टी की कारीगरी संग धैर्य की जरूरत होती है। मिट्टी का चयन, उसे पकाने की प्रक्रिया और फिर उससे आकृतियों का लोक रचने में रमना पड़ता है। कलाकारों को यदि इस—सब में सृजन की छूट मिले तो वह अद्भुत—अपूर्व रच सकते हैं। सुधि चिंतक और आईटीएम के संस्थापक कला—रसिक रमाशंकर सिंह ने इसे संभव किया है। मृदा—शिल्प कलाकारों के ग्राम देवता परिवार को मुश्ताक खान ने क्यूरेट किया है। ग्वालियर स्थित आईटीएम विश्वविद्यालय में ग्राम देवता रचने वाले कलाकारों द्वारा मिट्टी को गूंथकर, आकार देकर, और अंत में आग में पकाकर उसे पूर्णता देने बाद रंगालेप करते देख मृण शिल्प की भारतीय परम्परा से भी जैसे साक्षात हुआ। 

हमारे यहां लोक से जुड़ी ऐसी कलाओं की लूंठी परम्परा आरंभ से रही है। लोक देवता बाबा रामदेवजी राजस्थान ही नहीं देशभर में सर्व पूज्य हैं। कपड़े की कतरनों से उनके घोड़े बनते हैं। बाबा को अपना घोड़ा बहुत प्रिय था इसलिए इन्हें उन्हें अर्पित कर मन की मुराद पाने यह कला परवान चढ़ी। बांस, घास, और थर्माकोल की शीट से घोड़े बनते रहे हैं और फिर इन्हें सफेद और रंगीन कपड़े, माला, ऊन की झालर से सजाया जाता है। पीढ़ी दर पीढ़ी कलाकार घोड़ों की कलाकृतियों का यह संसार सिरजते आ रहे हैं। ऐसे ही गुरु गोरखनाथ के शिष्य गोगाजी  की आराधना में पत्थर या लकड़ी पर सर्प—मूर्ति ,  तेजाजी के घोड़े पर बैठे हुए, हाथ में तलवार और साँप पकड़े हुए का भी सुंदर संसार रचा जाता रहा है। देवनारायणजी और दूसरे लोक देवताओं, पाबूजी की पड़ के मोहक मृदा—शिल्प के लिए राजस्थान का मोलेला गांव तो विश्वभर में ख्यात है। मिट्टी की मूर्तियां अध्यात्म से ही नहीं जुड़ी मानव मन में शुभता—सुंदरता की सर्वत्र चाह से भी जुड़ी रही है।

देश-विदेश की कलादीर्घाओं में जाना होता रहा है। अचरज होता है कि वहां लोक कलाओं का सहारा लेते ही आधुनिकता का अपनापा रचा गया है। यह भी हर बार अनुभूत किया है, लोककलाएं जीवन में समाई सुगंध की व्यंजना है। साहित्य प्रत्यक्ष दृश्य नहीं है परन्तु लोक कलाओं में हम इतिहास को बांच सकते हैं। वासुदेव शरण अग्रवाल ने ठीक ही कहा है, जो शास्त्र लोक के साथ नही जुड़ा, वह बुद्धि का छलावा है।

 

Friday, January 3, 2025

भारतीय ज्ञान परम्परा पर व्याख्यान

 मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एम.एन.आई.टी.) के निमंत्रण पर पिछले दिनों शिक्षक—प्रशिक्षण के अंतर्गत नई शिक्षा नीति के आलोक में 'भारतीय ज्ञान परम्परा' पर बोलने जाना हुआ। 'भारतीय ज्ञान परम्परा' की कहां कोई थाह! यह वृहद विषय है। पढ़ा—गुना थोड़ा कुछ साझा किया...

व्याख्यान, 18 दिसम्बर 2024