ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Monday, August 4, 2025

स्वर—रस सिद्ध सिद्धेश्वरी

 सिद्धेश्वरी देवी का गान स्वरों की किस्सागोई है। विरह, मेल, भक्ति और समर्पण को भाव संवदनाओं में जीवंत करते वह स्वरदर स्वर संगीत के अपने सिरजे व्याकरण से जैसे हमें रूबरू कराती है। रागशुद्धता की विरल पुकार वहां है। ऐसी कि जिसे सुनने को मन ललचाए। आखिर उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ साहब और केसरबाई केरकर ने कभी ऐसे ही उन्हें ठुमरी साम्राज्ञी की संज्ञा नहीं दी थी। असल में खयाल शैली में बोल विस्तार और भावपूर्ण पुकार का उनका गान स्वरों का विरल उजास ही तो है!

सिद्धेश्वरी देवी की ठुमरी इसलिए भी लुभाती है कि वहां स्वरों का लालित्य है। ठुमरी का अर्थ ही होता है, स्वरों का ठुमकठुमक, हुमकहुमक निभाव। नाज़--अंदाज़ में गान का अलंकरण।  पर महत्वपूर्ण यह भी है कि इस सबके बाद भी सिद्धश्वेरी जी के गान में शास्त्रीय शुद्धता, गंभीरता से हम कहीं विलग नहीं होते। माने वह गाती तो उनके स्वर संग सुनने वाला भावो में भी डूबडूब रससिक्त होता है। गौर करेंगे तो यह भी पाएंगे, जटिल से जटिल राग को सहज बरतते वह ख्याल, तराना, ठुमरी, टप्पा, चैती, होरी आदि में अपने आपको  जैसे भुल जाती और औचक स्वरों का ऐसा सुंदर महल खड़ा होते हम पाते है जिसमें प्रवेश कर हम मुग्ध हो उठें। स्वरों का अनूठाओज, कुछ भारीपन और लयात्मक प्रवाह में तीनों सप्तकों पर उनका अधिकार था। और हां, स्वरलोचशीलता ऐसी कि बंदिश के एक ही टुकड़े को भांतभांत के भावों में गाते वह चमत्कृत करती हैं। 

मींड, ‘मुरकियां और गान के बीच औचकठहराव  की उनकी अनुभूतियों अवर्णीय है। विश्वास नहीं हो तो सुनें उनका दादरा, 'तड़पे बिन बालम मोरा जिया' या फिर 'तोड़ लायी राजा, जमुनिया की डार रे' या फिर  'सांवरिया मन भायो रे' या राग मिश्र तिलक कामोद में गाई ठुमरी 'सांझ भई घर आओ'  सुनेंगे तो मन करेगा बारबार सुनें। याद है, खमाज में उनकी गाई ठुमरी 'जावो बलम नाही बोलो हमसे' जब भी सुनी, लगा फिर से सुनूं। स्वरों में भावों का ऐसा सौंदर्य कि हर बार मन उनके बोल बनाव, पलटों में खो जाता है।  स्वरों का उनका फेंकने का अंदाज भी बारबार उन्हें सुनने को ललचाता है। मुझे लगता है, ठुमरी को उपशास्त्रीय से निकाल कर शास्त्रीय संगीत में लाने की दृष्टि किसी में थी तो वह सिद्धेश्वरी देवी में ही थी। यह था तभी तो वह ठुमरी को हर बार ध्रुवपद की भांति संस्कारित करती मन को भाती है । मध्य, मन्द्र और तार सप्तक में साधिकार मींड, खटका और कभी वक्र तान में उनकी गायकी स्वर-लालित्य के अनूठे भव में ले जाती है।

सिद्धेश्वरी का गान शब्दशब्द रस है। कभी 'गुरु ग्रंथ साहिब' में एकत्र संतों की वाणी को उन्होंने अपना स्वरउजास दिया तो संत तुकाराम, नामदेव, मीरा, कबीर के पदों को भी अपने गान में जीवंत किया है। सुप्रसिद्ध सारंगी वादक पंडित सियाजी महाराज से उन्होंने संगीत की आरंभिक शिक्षा ली।  देवास के रजब अली खान और लाहौर के इनायत खान से भी उन्हेांने संगीत का प्रशिक्षण लिया, पर बड़े रामदासजी को सदा अपना मुख्य गुरु माना। कलकत्ता सम्मेलन में अपनी पहली ही सार्वजनिक प्रस्तुति में सिद्धेश्वरी देवी ने ख़याल और ठुमरी की अपनी विरल दृष्टि से श्रोताओं को इतना मोहित किया कि बाद में तो देशभर में उनके गान की धूम सी मच गई। बनारस अंग की ठुमरी में ख़याल अंग का घोल कर उन्होंने गान का अपना मौलिक मुहावरा रचा। परम्परा में रहते हुए उसके जड़त्व को तोड़ कैसे स्वरवैविध्य में गान को भावसंवेदना से अलंकृत किया जाए, सिद्धेश्वरी देवी का गान जैसे हमे यह समझाता है। हर बार। बारबार!

Saturday, July 19, 2025

कलाओं संग मन भी जुड़े

पत्रिका, 19 जुलाई 2025

कलाकार क्लेयर लीटन की सिरजी महात्मा गांधी की एक दुलर्भ पेटिंग 1.7 करोड़ रुपये में बिकी है। गांधी की यह कलाकृति तब की सिरजी है जब वह दूसरी राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने लंदन गए थे। असल में यह गांधी का चित्रभर नहीं है। यह वह दृष्टि है जिसमें गांधी के उस समय को कलाकार ने अपनी अनुभूति में रूपान्तरित किया है। इसमें गांधी की भाव—संवेदना, अंतर्मन दृष्टि को रंग—रेखाओं में जिया गया है। कोई भी कलाकार दृश्य में इस तरह संगतता नहीं रखेगा तो उसका सिरजा कालजयी नहीं बनेगा। कला क्या है? भावनाओं, विचारों और अनुभवों की रचनात्मक दृष्टि ही तो!  

छायांकन कला का जब जन्म हुआ, तो फ्रांसीसी चित्रकार पॉल डेलारोशे ने कहा था, आज से, चित्रकला खत्म हो गई है। पर चित्रकला और छायांकन दोनों ही उसके बाद निंरतर समृद्ध हुए। इसलिए कि कलाओं में दृश्य से अधिक उस अदृश्य की सत्ता होती है जो कलाकार अनुभूतियों के आलोक में संजोता है। छायांकन में कैमरा नहीं वह आंख महवपूर्ण होती है जिसमें कैमरे से दृश्य का मनोरम सिरजा जाता है। कभी छायाकार मित्र और कला—प्रशासक फुरकान खान के लद्दाख केन्द्रित छायाचित्रो से रू—ब—रू हुआ था। लद्दाख को तभी पहली बार उसकी संपूर्णता में मन ने सहेजा था। वहां की धूप, छांव, रात्रि और इन सबमें निहित रंगो की विरल दृष्टि जैसे उनके छायाचित्रों में घुली है। एक छायाचित्र में रेत रंग में खड़े वहां के सूखे पहाड़, पेंगोग झील और उसमें बसे आसमानी रंग संग बादलों की श्वेतिमा इतनी रम्य है कि प्रत्यक्ष देखने पर भी वह दृश्य हम पा नहीं सकते। ऐसे ही पहाड़ों से निकलती सर्पीली सड़को, बर्फ,हरितिमा से आच्छादित लद्दाख के उनके खेत औचक कलाकार वॉन गॉग की याद दिलाते हैं। उन्होंने हरे रंग में भी और घुले दूसरे हरे, नीले में निहित दूसरे आसमानी रंगो का जैसे अपने छायाचित्रों में छंद रचा है। ऐसे ही मांडू के उनके छायांकन की दृश्यभाषा लुभाती है। एक चित्र में शिवलिंग और उन पर चढे बिल्वपत्र संग वहीं अटका खड़ा बेल-पत्र और वहां के किले पर उतरती सांझ,स्थापत्य शिल्प, झरोखे और उनसे झांकते प्रकाश में हम  जैसे जीवन की सुगंध पा लेते हैं। फुरकान खान कला—मन के हैं, इसीलिए अच्छे कला प्रबंधक भी हैं। उत्तर क्षेत्र और पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्रों, जवाहर कला केन्द्र में रहते उन्होंने कला—आयोजनों की सधी दृष्टि से निरंतर संपन्न किया है। जवाहर कला केन्द्र के लोकरंग में देशभर के लोक कलाकार आते हैं पर निरंतर एक जैसी ही प्रस्तुतियां से ऊब से निजात उन्होंने ही दिलाई। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में कभी रक्षा मंत्रालय और जनजातीय मामलों के मंत्रालय के संयुक्त प्रयासों से हुए 'आदिशौर्य' पर्व में एक साथ देशभर की कलाओं की सौंधी महक में गूंथी थीम धुन और उस पर 1 हजार 400 कलाकारों की मोहक संगत उनकी ही कल्पना थी।

मुझे लगता है, कलाएं जितनी महत्वपूर्ण है, उतना ही उनका प्रदर्शन भी सधा हुआ और बेहतर प्रबंधन से होगा तभी कलाओं से लोगों की निकटता बढ़ती है। अच्छे और सच्चे कलाकारों की कला को मंच भी तभी मिल पाता है जब उस कला की परख करने वाला हो। कोमल कोठारी इसीलिए राजस्थानी और दूसरे प्रांतों की  लुप्त हो रही कलाकारों को प्रश्रय दे सके कि उनके भीतर एक कला पारखी मन था। कपिला वात्स्यायन की बौद्धिक गहराई संग भारतीय कलाओं की संवेदनशील दृष्टि ने इन्दिरा गांधी कला केन्द्र को जीवंत किया। कलाओं और कला—प्रस्तुतियों में संलग्नता होगी तभी यह सब हो सकेगा। इसी से कलाओं के प्रति रसिकता जगेगी।

Saturday, June 21, 2025

भारतीय कला सृष्टि की दृष्टि है योग

पत्रिका, 21 जून 2025

विष्णुधर्मोत्तर पुराण के ‘चित्रसूत्र’अध्याय में राजा वज्र और मुनि मार्कण्डेय का संवाद है। राजा मुनि से कहते हैं, वह मूर्ति स्थापित करना चाहते हैं। मुनि का जवाब होता है, इसके लिए चित्र का ज्ञान जरूरी है। राजा कहते हैं, वह सीखा दें। मुनि कहते हैं, इसके लिए संगीत की जानकारी तो हो! राजा कहते हैं, तो संगीत के बारे मे बता दें। मुनि फिर कहते हैं, संगीत के लिए आतोद्य यानी वाद्य यंत्रों का ज्ञान जरूरी है। राजा कहते हैं, यह भी जानना चाहूंगा। मुनि फिर कहते हैं, संगीत के लिए नृत्य का ज्ञान जरूरी है। और इस तरह संवाद चलता रहता है। मूल जो निष्कर्ष है, वह यह है कि हरेक कला दूसरी में घुलकर ही पूर्णता को प्राप्त करती है। मुझे लगता है, भारतीय कलाएं इस रूप में योग का ही एक तरह से रागबोध है। कलाओं के अंतर में जाएंगे तो पाएंगे वहां सर्वत्र संधि है। रस का संयोजन है। योग क्या है? चित्तवृतियों का निरोध ही तो! भारतीय कला में कलाकार चित्तवृति का निरोध करके ही तो भाव विशेष का आत्म साक्षात्कार कर दूसरों को कराता है।

पुराणों में उषा-अनिरूद्ध आख्यान की चित्रलेखा को योगिनी निरूपित किया गया है। शोणितपुर के राजा बाणासुर की कन्या उषा ने स्वप्न में अनिरुद्ध को देखा और उस पर मोहित हो गई। देखे स्वप्न के आधार पर उषा की सखी चित्रलेखा अनिरुद्ध को तलाश कर योगबल से सुप्तावस्था में अपहरण कर लाती है। अनिरूद्ध का अपहरण यद्यपि मायावी कृत्य है परन्तु महर्षि वात्स्यायन के कामसूत्र की यशोधर कृत टीका-जयमंगला में चौंसठ कलाओं के पांच विभक्त वर्गों में तीसरे वर्ग-औपनिषदिक कला वर्ग में ऐसी ही कलाओं को रखा गया है। वहां कला चारू यानी मन को रंजित करने वाली भी है तो कारू यानी उपयोगी भी है।
सभ्यता का इतिहास मथेंगे तो यह तथ्य भी सामने आएगा कि पहले व्यक्ति ने अपने आपको साधा, इसमें योग ही उसका सबसे बड़ा सहायक रहा है। माने जब स्वरों को मनुष्य ने योग से साध लिया होगा तो संगीत के स्वर गुंजरित हुए। शरीर के विभिन्न अंग संचालन की लय सधी होगी तो नृत्य, नाट्य का परिष्कृत स्वरूप भी अस्तित्व में आया होगा और इसी तरह दूसरी कलाओं का योग भी अंतर और बाहर के आनंद के लिए हुआ होगा। कला क्या है? अनुभूति और कल्पना का संयोजन ही तो!
तैतरीय उपनिषद् में ब्रह्म को आनंद कहा गया है। वहां इसका सटीक अभिप्राय यह है कि ब्रह्माण्ड के आंतरिक समन्वय का साक्षात्कार जब प्राणी को स्वयं के अनुभव में होने लगता है तो वह आनंद की स्थिति में आ जाता है। मर्मज्ञ विद्वान हिरियन्ना ने इस आनंद को वेदांत के संपूर्ण सौंदर्य-सिद्धान्त की कुंजी बताया है। संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्र आदि सभी कलाएं आनंद की यही संधि है।
भगवान शिव को सृष्टि का पहला योगी कहा गया है। मंत्रयोग, हठयोग, लययोग और राजयोग के आदिप्रर्वतक शिव ही हैं। शिव ही नृत्य, संगीत, नाट्य के आद्य प्रर्वतक आचार्य हैं। उनके नटराज नृत्य में ब्रह्माण्ड का छन्द, अभिव्यक्ति का स्फोट-सभी कुछ छिपा है। सृष्टि का उद्भव विष्फोट से, शब्द से हुआ। नटराज ने एक बार नाच के अन्त में चौदह बार डमरू बजाया। इसी से चौदह शिवसूत्रों का जन्म हुआ। पाणिनी ने इसी से व्याकरण रचा। कालिदास ने मालविकाग्निमित्र में शिव के नृत्य को आंखो को सुहाने वाला यज्ञ कहा है।
दृष्टि ही सृष्टि है। श्री कृष्ण की त्रिभंगी-बांसुरी बजाती भंगिमा में तिरछापन और बांकपन ही सौंदर्य है। नटराज शिव की भंगिमा में लय है, ताल है, आकार भी है और प्रकार भी है। इस दीठ से भारतीय कला सृष्टि की दृष्टि का अपूर्व योग है। योग की यही भारतीय संस्कृति है।

Tuesday, June 17, 2025

जीवन योग—संगीत

"...पंडित रविशंकर को सुनते अद्भुत अंतर उजास पाया। तभी सहज प्रश्न उपजा था, 'संगीत में यह अलौकिक प्रभाव आप कैसे लाते हैं?' उनका जवाब था, "संगीत योग साधना है। मैं सितार बजाते खुद समाधिस्थ हो जाता हूं।' ...संगीत जीवन—योग है। जहां गति है, प्रकृति है—वहीं संगीत का योगबोध है। संगीत वाद्य या ध्वनिभर ही तो नहीं है! कल—कल बहती नदी, झर—झर बहते झरने, पक्षियों के कलरव, पत्तों की खड़खड़ाहट में संगीत भरा है। पर इसे सुनने का योग हर किसी के बस का नहीं! अंतर जगेगा तभी मन संगीत की इस योग साधना से जुड़ेगा।...याद है, मीरा के भजन 'जा मत जा रे जोगी' को एक दफा मलिकार्जुन मंसूर के स्वरों में सुना। सुनते लगा, मन अंतर—उजास से नहा उठा है। स्वरों की पुकार, लयबद्ध लघु दोहराव! ऐसे ही कुमार गंधर्व को जब भी कबीर के पद 'उड़ जाएगा हंस अकेला' गाते सुना, मन संसार के असार को हृदय में संजोता समाधिस्थ हुआ है। कुमार गंधर्व ने कबीर के निर्गुण में लोक का उजास घोला है। संगीत में सधे सुर सदा ऐसे ही अंतर्मन संवेदनाओं को जगाते हैं। तो कहें, मन के रीतेपन को भरने का योग है—संगीत!"

 दैनिक जागरण 16 जून 2025


Saturday, June 14, 2025

"राजस्थान इन्टरनेशनल सेंटर" में व्याख्यान...

पंडित विश्वमोहन भट्ट जी के सान्निध्य में सुरेन्द्र पाल जोशी कला स्मृति ट्रस्ट ने स्व. जोशी की स्मृतियां संजोने की महती पहल की।

युवा कला प्रदर्शनी के साथ संगीता जोशी जी की पहल पर इस आयोजन में उन पर विशेष व्याख्यान देने की नूंत थी। इस दौरान उनके सौंपे मनोहारी कला—भव को जिया...कलाओं की विरल, पर विविधता भरी उनकी दृष्टि पर अपनी बात रखते उनकी स्मृतियों से पुनर्नवा हुआ।



















Saturday, May 24, 2025

दृश्य की सुगंध घुली कलाकृतियां

पत्रिका, 24 मई 2025

कलाएं दृश्य—श्रव्य का आख्यान है। कितना—कुछ हम देखते—सुनते और पढ़ते हैं! कईं बार मन किसी खास दृश्य या पढ़े में ही अटक जाता है। गुलेरी ने तीन ही कहानियां जीवन में लिखी पर 'उसने कहा था' प्यार की आध्यात्मिक अनुभूति कराती अभी भी मन में बसी है। भीड़ भरे बाजार में लहना सिंह लड़की को तांगे के नीचे आने से बचाता है। वह पूछता है, 'तेरी कुड़माई हो गई?' लड़की 'धत्' कहते भाग जाती है। ऐसा कईं बार होता है। एक दिन लड़की कहती है, 'हां हो गई।', 'कब?', 'कल—देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ शालू!' शब्द—सृजन का यह मार्मिक आख्यान है। साहित्य ही नहीं चित्र संग भी यही है। रंग—रेखाओं में दृश्य, कईं बार इस कदर घुल—मिल जाता है कि वह सदा के लिए हमारी स्मृति का हिस्सा बन जाता है। इधर कलाकार कनु पटेल की कलाकृतियों का घूंट घूंट आस्वाद किया। लगा, वह समय जो बीत गया है, उसका चलायमान सिरजते हैं।  कला में स्मृतियों की सुगंध घोलते हैं। 

उनके चित्रों मे जितना मूर्त है, उतना ही अमूर्त भी है। दृश्य है, पर निहित संवेदनाओं का मधुर गान वहां है। समुद्र, धरती और आकाश को केन्द्र में रखकर उन्होंने रंग—रेखाओं में कहन का माधुर्य रचा है। एक चित्र है, जिसमें बैलगाड़ियां की कतारबद्ध शृंखला में छड़ी ऊपर किए हांकने वाले की मुद्रा और भागतै बैलों की गति का दृश्य है। बैलों की दौड़, उड़ती धूल और सब—कुछ गतिमान! ऐसे ही उनकी भागते ऊँटों, हिनहिनाते अश्व, नृत्य में गतिमान देह की विरल व्यंजना है। और यही क्यों? कभी कनु पटेल ने 'रेन स्केप' शृंखला सिरजी थी। गरजते बादल, चमकती बिजली और सिहरता जीवन! अतिवृष्टि से पीड़ित मानवता के दृश्यों की  करुणा को उन्होंने यहां जिया है। एक कलाकृति में रेत के धोरों पर सो रही स्त्री, नीलापन ओढ़े आकाश या कहें उसकी घनीभूत परछाई और सूर्य किरणों की चमक बिखेरता पेड़ है। वृक्ष, स्त्री और धरित्रि की यह अर्थभरी छटा है। कनु की कलाकृतियों में स्थिरता नहीं है, सब कुछ चलायमान है। रंग—रेखाओं में भारतीय दर्शन, चिंतन की भी अनुगूंज है। उनके सिरजे बुद्ध, गांधी, प्राचीन भारतीय शिल्प और पुराने पन्नों के रूपाकार गुजरे समय और उसमें निहित संवेदनाओं का मनोहरी रूपांकन है। मुझे लगता है,दृश्य में निहित गति में वह अपने होने को विसर्जित कर देते हैं। इसी से उनकी सिरजी कलाकृतियां अतीत नहीं बनती, रंग—रेखाओं में गूंथी वह धुन बन जाती है जिसे हर कोई देखते हुए सुनना चाहता है।  

बड़े गुलाम अली खां के बारे में किस्सा मशहूर है। एक दफा वह गांव गए। देखा एक सुंदर लड़की पनघट से पानी भर नाज से उनके आगे से निकल गई। उस्ताद जी मुग्ध उसे देखते रह गए। शिष्य हैरान। उस्तादजी को इस उम्र में यह क्या हुआ? औचक उस्ताद जी के मुंह से निकला, अहा!  क्या नजाकत, चाल और पतली कमर है। काश! गान में यह आ जाए। कनु पटेल ने यही किया है। जो देखा, उसे रंग—रेखाओं में जीवंत किया है।

Tuesday, May 13, 2025

मांड माने मन की बात

'रेशमा और शेरा' फिल्म का एक बहुत ही प्यारा गीत है'तू चंदा मैं चांदनी, तू तरुवर मैं शाख रे' मांड राग के आलोक में संगीतकार जयदेव ने इसे रचा है। लता मंगेशकर ने हृदयनाथ मंगेशकर के संगीत में कभी 'लेकिन' फिल्म में 'केसरिया बालम' का स्वरमाधुर्य भी इसी में बिखेरा। गीत और भी हैं। याद करें, 'अभिमान' का 'अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी' 'बैजू बावरा' का 'बचपन की मोहब्बत को' पूरी शृंखला है, मांड से प्रेरित। मांड माने मन की बात। मांड स्वरउजास है। प्रेम, शृंगार, विरह और वेदना से जुड़ा संगीत।  पर्व, उत्सव और मांगलिक कार्य में घरों की दीवारों, आंगन को अलंकृत चित्रों से सजाने की प्रख्यात लोक चित्र शैली भी है, मांडणा। मांड राग कुछकुछ ऐसी ही हैसंगीत में जीवनरस घोलती। रेत से हेत जगाती। मधुर और शृंगारिक।

जागरण, 12 मई 2025

मूलतः राजस्थान से जुड़ी यह लोक में घुली शास्त्रीय राग है। स्वरों पर जाएंगे तो यह खमाज सरीखी लगेगी। विष्णुनारायण भातखंडे की परम्परा को मानें तो यह राग बिलावल थाट में आता है। इसमें निबद्ध बोलों पर गौर करेंगे तो यह भी अनुभूत होगा, यह मिश्र में अंतर्मन माधुर्य जगाता है। राजस्थान में प्रख्यात लोक गायिका अल्लाह जिलाई बाई, मांगी बाई, गवरी देवी ने मांड में निषाद प्रयोग में बिछोह, शृंगार को गहरे से जिया है। 'केसरिया बालम आओ नीं, पधारो म्हारे देश' के बोलों में यह राजस्थान की आवभगत से जुड़ी मनुहारसंस्कृति का भी पर्याय है। अल्लाह जिलाई बाई का 'पधारो म्हारे देस' एलबम बहुत मशहूर हुआ। असल में उनके उस्ताद ग्वालियर घराने से जुड़े राजगायक थे सो उनकी आवाज का संस्कार भी ग्वालियर अंग से हुआ। इसलिए मांड में वह ठुमरी, ख्याल सरीखे प्रभाव लाती रही। राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों में लंगे, मांगणियार लोकगायक घरानों ने भी इसे विलम्बित लय की बंदिशों में ख्याल की भांति स्वर-लालित्य में निखारा है। सुनेंगे तो यह भी लगेगा राग के लोकरूप में शास्त्रीय संगीत की गहराई तक पहुंचने की व्याकुलता इसमें समाई है। शुद्ध शास्त्रीय नहीं पर उसके रूपात्मक सौंदर्य की लोक छटाओं में समृद्धसंपन्न यह गान में ठहराव और लय का विरल सौंदर्य है।

स्वरसहजता, मात्राओं के विशिष्ट क्रम और ताल के विभिन्न अंतरालों की मधुर व्यंजना हैमांड। मुझे लगता है, यह राग नहीं स्वरमाधुर्य की संस्कृति है। कभी अल्लाह जिलाई बाई से लम्बा संवाद हुआ था। उनका कहा याद रहा है, मांड दोहों की अलंकृति है। भारत की लोक रागों में निबद्ध शास्त्रीयता का संधान करना हो तो मांड सहायक सिद्ध होगी। कहें, मांड भारत की लोक में गूंथी शास्त्रीय राग है। गतिपूर्ण सांगीतिक पंक्तियों द्वारा एक मात्रा में पिराई यह किसी माला में गूंथे मोतियों सरीखी है।

संगीत रत्नाकर में मरू प्रदेश के राग से इसका संदर्भ है तो मराठी लोक नाट्यों में विभिन्न तालों में यह आलोकित होता है। बांग्ला के महानतम कवियों में से एक काजी नजरुल इस्लाम के गीतों, रवीन्द्र संगीत में भी मांड कहीं भीतर तक बसा मिलेगा। दक्षिण भारत के 'धीर शंकरा भरण' में भी मांड का स्वर आलोक है। कर्नाटक संगीत के नाग स्वरम्, वायलिन, वीणा केबहुत से रिकॉर्ड मांड राग से ही निकले हैं। मीरा के पद भी तो मांड का ही लोकआलोक लिए है। किशोरी अमोणकर, कुमार गंधर्व, केसरबाई, जे.एल. रानाडे, हीराबाई बड़ौदकर की गाई रचनाओ में मांड, मांड भटियार, मिश्र मांड, खमाज मांड में निबद्ध ख्याल, भजन और ठुमरियां सुनेंगे तो मन करेगा सुनें और बस सुनते ही रहें। एक और भी मांड का स्वरूप हैआसा मांड। मांड के पारम्परिक स्वरूप से यह थोड़ी भिन्न है पर परमेश्वर की महिमा और नाम का इसका बखान अद्भुत है। गुरू ग्रंथ साहिब में 'आसा दी वार' इसी का अप्रतिम उदाहरण है। राग चन्द्रिकासार में आता है, 'मध्यम मृद तीवर सबै, वक्र सहज अवरोही। सम वादी संवादी ते माड राग सुकहोहि।' अभिनव राग मंजरी, संगीत सुधाकर आदि दूसरे ग्रंथों में भी मांड की महिमा यत्रतत्र है। एक महत्वपूर्ण बात और कि मांड को जिस सहज ढंग से गान में निभाया जा सकता है, वाद्य यंत्रों में इसका वैसा निभाव कठिन बल्कि कहें दुर्लभ प्राय: है। आरोह-अवरोह में वक्र। समय का कहीं कोई बंधन नहीं। जब चाहे, तब गायें, मांड की सुगंध मन को हरखाएगी।