ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Monday, November 10, 2025

वंदे मातरम्


'वंदे मातरम्' आजादी से जुड़े आंदोलन का बीज मंत्र भर नहीं रहा है, हमारी संगीत संस्कृति से भी सुरभित रहा है। इसकी पहली स्वरलिपि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के संगीत गुरु यदुनाथ भट्टाचार्य ने तैयार की थी। पर, सार्व​जनिक सभा में इसे पहली बार गाया, रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने और बादमें उनकी भानजी कवयित्री और गायिका सरला देवी चौधुरानी ने भी रवीन्द्र संगीत में ही गाया। ...'वंदे मातरम्' राष्ट्रीय गीत नहीं बनता, यदि मास्टर कृष्णराव इसकी सांगीतिक लड़ाई नही लड़ते। मिश्र झिंझोटी राग में 'वंदे मातरम्' को सामुहिक गान बनाने का श्रेय भी मास्टर कृष्णराव को ही जाता है। ...
दैनिक जागरण, 10 नवम्बर 2025



Saturday, October 25, 2025

विज्ञापन की विचार संस्कृति की भारतीय दृष्टि

 

अमर उजाला, 25 अक्टूबर 2025

पीयूष पाण्डे नहीं रहे, पर भारत में विज्ञापन को जन-मन से जोड़ने की दृष्टि और संस्कार के वह उन्नायक बने। लोक से जुड़े भावों को शब्दों में गूंथते उन्होंने भारतीय संस्कृति में घुले जीवन व्यवहार को विज्ञापन साम्रगी बनाने की विरल पहल की। 

विज्ञापन क्या है? जन-मन को लुभाने से जुड़ा ज्ञान ही तो! वस्तु, सेवा, उत्पाद और विचार से जुड़ी यह वह कला है जिसमें संदेश को विशेष ढंग से संप्रेषित कर इच्छित परिणाम प्राप्त किया जाता है। पीयूष पांडे का विज्ञापन कहन ऐसा ही था। जन मन में सहज बसने वाला। समाज से जुड़ी परम्पराओं, रीत-रिवाज, रिश्ते-नातों की गहरी अन्तर्दृष्टि उनमें थी। इसीलिए उनके विज्ञापन बोल निरंतर लोगों को आकृष्ट करते रहे हैं। वह अपने आस-पास के परिवेश को सुंघ लेते थे। फिर उसमें शब्दों की सुगंध घोल इच्छित परिणाम देने के लिए लक्षित समूह को उकसाते थे। ’अबकी बार मोदी सरकार’, यह फेविकोल का ’अटूट बंधन’ है, कैडबरी का ’कुछ खास है’, एशियन पेंट्स का ’हर खुशी में रंग लाए’ विज्ञापन सहज-सरल इसलिए मन को भाते हैं कि इनमें कहीं कोई बनावटीपन नजर नहीं आता। लोक से जुड़ा आलोक है। माने जिस तरह से लोग सोचते हैं, विचारते हैं-उसे ही उन्होंने शब्द दे दिए। यह इसलिए जुबान पर चढे कि छांदिक हैं। कविता की लय और जीवन से जुड़ी सुगंध कहन में यहां समाई है।

पीयूष पाण्डे ने विज्ञापन के लिखे वाक्यों को दृश्य संस्कार दिए। उनके छोटे-छोटे वाक्य इसलिए सुहाते हैं कि वहां पर कहन-कोलाज है। थोड़े में बहुत सारा। गागर में सागर। रिश्ते-नातों और परम्परा का उजास है। कथा का कोई सूत्र है।...और यह ऐसे ही नहीं होता है, इसके लिए जीवन से जुड़े मूल्यों में रच-बसना पड़ता है। 

याद है, अरसा पहले आर.के. लक्ष्मण से लम्बा संवाद हुआ था। मेरा प्रश्न था, आप आम आदमी से इतने घुलते-मिलते नहीं है फिर भी आपका कॉमन मैन हर घटना का बेबाक गवाह कैसे होता है? उनका जवाब था, मैं आम आदमी से मिलता-जुलता नहीं हूं पर उन्हें समाचार पत्रों में, टीवी चैनलों में और किताबों-कहानियों में पढ़ लेता हूं। मुझे लगता है, पीयूष पाण्डे ने विज्ञापन की दुनिया में यही किया। उनके विज्ञापन संसार में जाते बार बार यह अनुभूत होता है, वह आम आदमी से जुड़े जीवनगत सरोकारों पर पैनी नजर रखते थे। व्यक्ति को, परिवार को, संस्थाओं को पढ़ते थे और फिर उसे अपने विज्ञापन में गुनते-बुनते थे। यही कारण है, विज्ञापन के उनके वाक्य सीधे सरल, पर मन में गहरे तक बसते हैं। कहन की जीवंतता वहां है। याद करें, पल्स पोलियों के लिए उनका दिया वाक्य, ’दो बूंदें जिन्दगी की’। पढेंगे, सुनेंगें तो लगेगा-अरे! यह तो बहुत आसान है। पर, यह सरलता पीयूष पाण्डे के सृजन का बड़ा हासिल है।

पीयूष पाण्डे पश्चिम का अंधानुकरण नहीं कर भारतीय परिवेश में झांकते थे। बाहर का नहीं देखकर अंदर को तलाशते थे, उससे फिर अपना तराशते थे। 

विज्ञापनो की दुनिया प्रायः छल-छद्म से जुड़ी होती है। प्रोपेगेण्डा वहां प्रमुख होता है। येन-केन प्रकारेण लक्षित समूह को प्रभावित करना ही उसका मुख्य ध्येय होता है, पर वहां यदि आत्मीयता का रंग घोल दिया जाए तो संप्रेषण की जटिलताएं समाप्त हो जाती है। पीयूष पाण्डे ने अपने सिरजे विज्ञापनों में यही किया। विज्ञापन में ब्रांड कब जीवन से जुड़ हमारा अपना हो जाता है, पता ही नहीं चलता। और यह शायद इसलिए भी है कि वहां ब्रांड को प्रचारित करने की बजाय जन मन में घुलने की दृष्टि और सृष्टि का आग्रह अधिक है।

मिले सुर मेरा तुम्हारा’ गीत पीयूष पाण्डे का था। इसे अलग-अलग भाषाओं में सुनेंगे और दृश्य में घटित देखेंगे तो लगेगा माधुर्य का कोई अनुष्ठान हुआ है। भाषाई विविधता में भारत की अनेकता में एकता की बहती सुर-नदियों का यह विरल प्रसार ही तो है। संस्कृति की, देश की मिट्टी की महक जो इसमें समाई है!

पीयूष पाण्डे इसलिए भी याद आते रहेंगे कि विज्ञापनों से जुड़ी जनसंचार की लोकप्रिय भारतीय-संस्कृति का निर्माण उन्होंने किया। रचनात्मक दृष्टि को कैसे लक्षित समूह के लिए विचार बना संप्रेषित किया जा सकता है, यह वह जैसे अपने विज्ञापनों से व्याख्यायित करते थे। विचार किस तरह से किसी उत्पाद को एक नया आयाम दे सकता है, उनकी विज्ञापन भाषा इसका अप्रतिम उदाहरण बनी। वह लोगों को, समाज को पढ़-सुन कर उसे विज्ञापन में गढते थे। यह था तभी तो उनके विज्ञापनों ने ब्रांड को नई ऊंचाइयां ही नहीं दी, आम लोगों के दिलों में बसाया।

पीयूष पाण्डे विज्ञापन को कलात्मक सौंदर्य प्रदान कर उसे जीवन से, जन-मन की भावनाओं से, रोजमर्रा की जिंदगी से ओतप्रोत करने की भारतीय दृष्टि के संवाहक थे। वह नहीं रहे, पर उनके विज्ञापन बोल सदा जीवंत रहेंगे। अमेरिकी विज्ञापन जगत के पंडित विलियम बर्नबैक ने कभी कहा था, विज्ञापन विज्ञान नहीं, अनुनय कला है। पीयूष पांडे इस अनुनय कला की भारतीय दृष्टि थे। 

Monday, October 20, 2025

संगीत के छलकते माधुर्य में जीवन उजास का संधान

 'जागरण' में आज..."दीपावली घनीभूत अंधकार से लड़ने का सृजन पर्व है। दियों की रोशनी से घर-आंगन जब सज उठते हैं तब मन मयूर भी गा उठता है।

...दीपावली अंधकार से मुक्ति का पर्व ही नहीं है, बीत गया और जो रीत गया उससे मुक्त हो नया कुछ रचने का उजास—पर्व ही तो है! आईए, इस पर्व पर संगीत के छलकते माधुर्य की रागों में जीवन के उजास का संधान करें।"

दीपावली के पावन पर्व की आप—सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।
दैनिक जागरण, 20 अक्टूबर 2025


Sunday, October 19, 2025

काल, कला और गति

  'साहित्य अमृत' अक्टूबर 2025 अंक में ललित निबंध








Saturday, October 18, 2025

अलगोजे का लोक—आलोक

पत्रिका, 18 अक्टूर 2025

अलगोजा लोक वाद्य है। पर इसकी जड़ें हमारी सनातन संस्कृति से जुड़ी है। भागवत में आता है, भगवान श्री कृष्ण साथी ग्वालों को शृंग बजाकर जगाते थे। वह शृंग प्रिय है। प्राचीन ग्रंथों में शृंग सुषीर—वाद्य है।

श्रीकृष्ण का शृंग है, वेणु। इसी से मिलता—जुलता है, अलगोजा। इसकी उत्पत्ति विश्वभर में सभ्यता का पालना कही जाने वाली मेसोपाटामिया के "अल-जोज़ा" से भी जुड़ी है। वहां से ईरान और फिर भारतीय उपमहाद्वीप तक पहुंचते पहुंचते यह 'अलगोजा' हो गया। इस शब्द का अर्थ होता है, "जुड़वाँ"। असल में यह दो जुड़ी हुई चोंच वाली बांसुरी है।

...मलिक मुहम्मद जायसी के 'पद्मावत' में आया है, 'अलगोजे बज्जत छिति पर छज्जत सुनि धुनि लज्जत कोइ'। माने जब पृथ्वी पर अलगोजा बजता है तो उसे सुनकर हर कोई आनंदित होता है। पाकिस्तान के मिश्रीखान जमाली अलगोजे के विरल वादक रहे हैं।

पंजाब की 'लम्बी हेक दी मलिका' गुरमित बावा प्राय: अलगोजे के साथ ही सुरों को साधती थी। 'अलगोजा' चरवाहों के रंजन से जुड़ा रहा है। अस्सी वर्षीय रामनाथ चौधरी इसे नाक से बजाते हैं। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन जयपुर आए तो अलगोजे पर रीझते वह रामनाथ चौधरी को आग्रह कर अमेरिका ले गए। तगाराम भील ने पशुओं को चराते समय वन में पिता का अलगोजा चुराकर लेजाकर उसे बजाना सीख लिया।

...प्रकृति को निवेदित कला सहज—सौंदर्य लिए होती है।अकबर ने एक दफा तानसेन के मधुर स्वरों को सुन कहा था, 'तुमसे बेहतर इस संसार में और कोई नहीं गा सकता!' तानसेन ने जवाब दिया था, 'मेरे गुरु स्वामी हरिदास के सामने मेरा गान कुछ भी नहीं है।' अकबर ने उनको बुलाने का आग्रह किया। तानसेन ने कहा, वह आग्रह पर नहीं गाते। वह जब गा रहें हो तो हम छिपकर सुन सकते हैं। यही हुआ। अकबर ने स्वामी हरिदास को गाते सुना तो सुनते ही रह गया। बोला, 'तानसेन तुम्हारे स्वरों में यह मिठास क्यों नहीं है?' तानसेन का जवाब था, ' हुजूर मैं आपके लिए गाता हूं, मेरे गुरु ईश्वर के लिए गाते हैं।'

Monday, October 6, 2025

अमर उजाला' में ...

 

पंडित छन्नू लाल मिश्र का बिछोह संगीत संग उसकी समझ को व्याख्यायित करने की गहन दृष्टि से, संगीत की हमारी ज्ञान-परम्परा से बिछुड़ना है। बहुत कम ऐसे गायक रहे हैं जिनका रागदारी पर जितना अधिकार होता है उतना ही उससे जुड़ी परम्परा पर भी हो।
छन्नूलाल मिश्र ऐसे ही थे। वह गाते ही नहीं थे, गान और संगीत से जुड़ी हमारी विरासत से हमें जोड़ते थे।
...उनकी किस्सागोई लुभाती थी, इसलिए कि गाते हुए रस लेकर श्रोताओं को संबोधित होते थे।ठुमरी गाते तो यह बताते थे कि कैसे बोल बनाव में वह लोगों का मन हर्षाती है। चैती गाते तो चैती, चैत्र मास और घाटो के अर्थ समझाते।
...पहली बार उन्हें सुना था तब उनका गला बैठा हुआ सा लगा था। आवाज में भी माधुर्य का अभाव खला था पर जब बाद में ’खेलें मसाने में होरी दिगम्बर खेलें मसाने में होरी भूत पिशाच बटोरी दिगम्बर खेले मसाने में होरी..!’ सुना तो लगा, वह गाते नहीं, संगीत को ओढ़ते-बिछाते उसमें रससिक्त हो हमें भी भावों से सराबोर करते हैं।
... उनका गान संगीत का छंद था। छंद शब्द संस्कृत की ’छद्’ धातु से बना है। अर्थ होता है, खुश करना। छन्नू लाल मिश्र का संगीत ऐसा ही था, लुभाता हुआ अंतर्मन उल्लास देने वाला।...
घराने से नहीं, संगीत में कहन के अंदाज ने उन्हें विशिष्ट पहचान दी। भले देह से पंडित छन्नूलाल मिश्र हमसे दूर चले गए हैं। पर, गान के उनके अंदाज, उनकी व्याख्याएं और बनारस के मर्णिकर्णिका श्मशान घाट पर शिव के होली खेलने के आनंद गान ’खेलें मसाने में होरी दिगम्बर खेले...’ में मृत्यु भी जैसे जश्न मनाते समझा रही है कि वह कहीं नहीं गए, यहीं है-सुनने वालों के संग।
अमर उजाला, 5 अक्टूबर 2025


'कथूं—अकथ' का लोकार्पण और संवाद

 'आखर' में आईटीसी राजपुताना होटल में 4 अक्टूबर 2025 को राजस्थानी डायरी 'कथूं—अकथ' का लोकार्पण हुआ। बाद में ख्यातिलब्ध कथाकार,कवि और जयपुर जिला कलक्टर डॉ. जितेन्द्र कुमार सोनी जी से राजस्थानी और हिंदी में डा. राजेश कुमार व्यास ने अपने रचना—संसार पर संवाद किया.




















'कलाओं की अन्तर्दृष्टि' पर डॉ.राधावल्लभ त्रिपाठी

 'कलाओं की अन्तर्दृष्टि' पर—

संस्कृत को आधुनिकता का संस्कार देने वाले मर्मज्ञ विद्वान, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान और श्री लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली तथा डॉ. हरिसिंह गौड़ विश्वविद्यालय, भोपाल के पूर्व कुलपति डॉ.राधावल्लभ त्रिपाठी 



डीडी उर्दू चैनल पर-

डीडी उर्दू चैनल पर-

'किताब कायनात' में--'कलाओं की अंतर्दृष्टि'--
साहित्य अकादेमी के संपादक, कवि, कलाकार—कला समीक्षक कुमार अनुपम की दीठ



Saturday, September 20, 2025

रंग—भाषा और देखने का संस्कार

पत्रिका, 20 सितम्बर 2025

चित्रकला मन की भाषा है। रंग और रेखाओं रचा दृश्य कहन! लियोनार्दो विन्शी ने कभी कहा था, अच्छा चित्रकार वह है जो मनुष्य की देह ही नहीं आत्मा की आकांक्षा को चित्रित करे। देह का चित्रण सरल है किन्तु आत्मा की आकांक्षा उकेरना दुरूह है। है। इसीलिए कहें, चित्र में दृश्य नहीं उससे जुड़ा आंतरिकबोध महत्वपूर्ण होता है। भारतीय कलादृष्टि यही रही है।

रंग प्रकाश का गुण है। इसी से आँखों में दृश्य बोध होता है। मूल तीन रंग नीला, लाल और पीला है। इन पर जब प्रकाश पड़ता है, तब उसकी तरंगे और भी रंग होने का अहसास कराती हैं। प्रकाश परावर्तित होने से ही आंख भांत भांत के रंगीन दृश्य महसूस करती है। दिन का उजला और रात्रि का अंधकार मूल रंगों में घुलता है तो रंगों की विविध छटाएं बनती है। आकाश को हम नीला मानते हैं। पर यह नीला थोड़े ना हैसूर्य के प्रकाश में बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला नारंगी और लाल रंग घुला होता है। यह उजास जब वायुमंडल में प्रवेश करता है, तो विभिन्न गैसों और धूल-कणों से टकराता है। रेले स्कैटरिंग प्रभाव से नीला और बैंगनी रंग तब अधिक बिखरता हैं। लाल और नारंगी कम। प्रकाश के एक छोर से दूसरे छोर तक की दूरी में चूंकि हमारी आँख नीले के प्रति अधिक संवेदनशील होती है। सो हमें आकाश नीला दिखता है। सूर्य किरणों को उदय या अस्त होने के समय चूंकि पृथ्वी तक पहुंचने में अधिक दूरी तय करनी पड़ती है, इसमें नीला और बैंगनी पूरी तरह बिखर जाता हैं और केवल लाल, नारंगी और पीला ही आँखों तक पहुँच पाता हैं। इसीलिए सूर्योदय और सूर्यास्त में आकाश सिंदूरी अनुभूत होता है।

प्रकाश के कारण आँखों में उत्पन्न होने वाले दृश्य बोध से जुड़ी पी.सी. किशन की महती कलाकृतियां का आस्वाद इधर किया। वह रंगों का बोधबंचाने वाले कलाकार हैं। आत्मआकांक्षा में रंगों का अनूठा लोक रचने वाले कलाकार। वह भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी है पर कवि मन के चित्रकार हैं। मूलतः ओडिसा के हैं पर एक दशक से हरे रंग का लोक रच रहे हैं। अपनी सिरजी कलाकृतियों में उन्होंने गगन निहारते हरे पेड़ों का झुरमुट, झाड़ियां और बहती नदी में भी झांकते पेड़ों के हरेपन को जिया है। वह अच्छे संगीतज्ञ हैं और मूर्तिकार भी सो प्रकृति की रची उनकी दृश्यावलियों में संगीत का अमूर्तन भी बसा है। 

हमारे यहां कहा गया है, रंजयति इति राग! राग शब्द 'रंज' धातु से बना है। अर्थ है, "रंगना" या "प्रसन्न करना"।  मन को जो भाव—सौंदर्य से रंग दे, वह राग है। शास्त्रीय संगीत में राग श्रोताओं के मन में शुद्ध भाव, प्रकृति के अनुरूप विशिष्ट भावों और आनंद से सराबोर करते हैं।  इसीलिए शास्त्रीय रागों का अपना महत्व है। हर राग का अपन समय और ऋतु से जुड़ा भाव है। विशिष्ट नियम, स्वर, और अलंककरण में गूंथा होता है, राग। इसीलिए संगीतकार को उसे व्यंजित करने में अपार स्वतंत्रता होती है। अनुशासन से बंधा होता है राग पर उस बंधे अनुशासन में भी गान की विविधता की अपार स्वतंत्रता निहित होती है। यह संगीत ही है जिसमें नियम के बावजूद कलाकार को अपना मौलिक रचने की अपार स्वतंत्रता है। विशिष्ट स्वरों, वाक्यांशों और अलंकरणों में कलाकार पूर्व निर्धारित राग को उसके अनुशासन में भी निभाता है तो अपने तई निरंतर मौलिक भी करता जाता है। यही राग की बढत है। दिन के विशेष समय, रात्रि, सांझ, भोर और मौसम या ऋतु में राग का निभाव प्रकृति से जुड़ी मन की दृष्टि का ही तो नाद है! 

पी.सी. किशन ने अपनी कला में यही किया है। हरे रंग में संगीत के रागों का निभाव किया है। उनकी कलाकृतियों में एक खास तरह की एकांतिका है। मौन है।  पर इनमें घुले स्वरों का आस्वाद कराने वाली सांगीतिक रागों में उन्होंने चित्रों का संसार सिरजा है।  प्रकृति में घुले राग मिंया मल्हार, बिलावल, राग देश, राग पुरिया कल्याण, और राग भटियार जैसी दुर्लभ रागों को उन्होंने चित्रों में रचा है। मुझे लगता है, प्रकृति समाए स्वर—उजास का उन्होंने जैसे अपनी कलाकृतियों में संधान किया है।  इसीलिए उनके हरे में घुले चित्र देखते हुए औचक हम प्रकृति के निकट पहुंच, ऋतुओं में समाई जीवंतता को अनुभूत करने लगते हैं।  उनकी इन कलाकृतियों का आस्वाद करते प्रकृति के स्वरों की मिठास ही हममें नहीं घुलती, संगीत के शास्त्र से भी अनायास साक्षात होते हैं। राग क्या है? समय के अनुकूल वातावरण और  रचनात्मकता व्यक्त करने का एक ढांचा ही तो! इसी से श्रोताओं में शास्त्रीय राग विभिन्न भावनाओं को जगाने और सांस्कृतिक दृष्टि विकसित करते है।  उनकी कलाकृतियो में नीलांबर भी है तो पेड़ों के हरे में घुला हल्का हरा है। हरे में छुपे और भी बहुत से हरे रंगों के सूक्ष्म अनुभवों की एंद्रिय अनुभूति वहां है। यह महत्वपूर्ण है कि पी.सी. किशन ने पेड़ों में रची बसी प्रकृति को ही अपनी कला का आधार बनाया है। सभी चित्र हरे का शाश्वत सौंदर्य लिए है। गहरा हरा, हल्का, धूप में नहाया हरा, पीला होता हुआ तो कभी सिंदूरी होता हुआ भी।  

यह महज संयोग नहीं है कि उनकी कलाकृतियां किसी एक रंग में, प्रकृति के एक से लगते दृश्यबोध में भी लुभाती है। मुझे लगता है, किसी चित्र की रम्यता देखने के ढंग पर भी निर्भर करती है। कला समीक्षक और उपन्यासकार जॉन बर्जर ने कभी बीबीसी के लिए टेलीविज़न कार्यक्रम "वेज़ ऑफ़ सीइंग" किया था। बाद में उनका यह लिखा पुस्तक रूप में भी प्रकाशित हुआ। बर्जर ने कला से जुड़ी दृश्य की सामाजिक और राजनीतिक व्याख्या की है। पर मुझे लगता है, कलाकृतियों को देखना भी हमारे संस्कारों से जुड़ा है। रंगो का अपना मनोलोक है। वह पढे जा सकते हैं। हरा रंग अंतर्मन आकांक्षा, संतुलन और पर्यावरण से जुड़ा है। शरीर आत्मा में सामंजस्य का हेतु भी। पेड़पौधों का रंग इसीलिए शायद हरा है कि वे प्रकृति में संतुलन बनाए रखते हैं। 

पी.सी. किशन ने वृक्षों के बहाने हरे रंग की गहराई, प्रकाश और छायाओं का भी विरल रूपांकन किया है। कहीं पढ़ा याद रहा है कि सूरज की धूप चांद के धरातल से टकराकर चांदनी बन जाती है। माने चांद सृजक नहीं अनुवादक है। यह अनुवाद भी हरेपन में उनकी कलाकृतियों में जतन से हुआ है। किसी एक रंग में और कितने रंग हो सकते हैं, यह भी उनकी कलाकृतियां जैसे हमें जताती है। इसीलिए तो उनके चित्र में स्वच्छ आकाश में बादलों की अठखेलियों में झरता हरा भी है तो सांझ में सिंदूरी होते आकाश में झिलमिलाता हरा भी अलग से अपनी छटा बिखेरता है। उनकी कलाकृतियां जंगल, धरती और मिट्टी की खुशबू संग बहते जल की धाराओं का राग है। हरे के बहाने तकनीक आच्छादित इस दौर में कुछ देर ठहर प्रकृति से जुड़ने की सीख देते, रंगभाषा में प्रकृति की रम्यता लिए।