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पत्रिका, 19 अप्रैल 2025 |
कुमुदिनी लाखिया नृत्य और नृत्त के अन्त:संबधों की संवाहक थी। उनका अवसान भारतीय कला के एक युग का बिछोह है। कुमुदिनी ने कथक में पहले से होती आ रही परम्पराओं को पुनर्नवा कर उसे आधुनिक दृष्टि दी। वह विरल नर्तक थी। नृत्य में निहित भावनाओं और आंगिक हाव—भाव संग वह नृत्य—नृत्त करती थी। माने शुद्ध शारीरिक गति और लय में वह देह के गान की रसानुभूति कराती भावों का अनूठा संसार रचती थी। कथक में अमूर्तन की दृष्टि पहले—पहल किसी ने दी तो वह कुमुदिनी लाखिया थी।
कुमुदिनी ने कथक को मंचीय—विस्तार दिया। मंच पर खाली जगहों, वहां की निष्क्रियता में नृत्य और नृत्त की ऊर्जा संग उन्होंने उमंग भरी। कथक में समूह नृत्य की प्रवर्तक वही थी। नृत्य—नृत्त के भेद समझाते कुमुदिनी ने कथक के बंधे—बंधाए नियमों के अनुशासन को बरकरार रखते हुए भी कथक को समयानुरूप आधुनिक दृष्टि दी। सर्वथा नया व्याकरण विकसित किया। बंधे—बंधाए कथानकों की रूढ़ि में कथक के होने की मुक्ति की राह भी किसी ने तलाशी तो वह कुमुदिनी लाखिया थी।
याद है, भोपाल स्थित अलाउद्दीन खां अकादमी के उपनिदेशक रहे, मित्र राहुल रस्तोगी संग एक दफा संवाद में यह तय हुआ था कि कुमुदिनी लाखिया की कथक—विचार दृष्टि को उनके यहां जाकर हम संजोंएंगे। पर कुछ व्यवधान ऐसे उभरे कि यह संभव नहीं हो सका। पर इस दौरान उनकी कला की मौलिकता को निरंतर जिया। वह नाचती तो आंगिक क्रियाएं विचार बन हमसे संवाद करती। नृत्य में देह का विसर्जन कर विचार का प्रगटीकरण किसी ने किया तो वह कुमुदिनी लाखिया थी। उनकी नृत्य—प्रस्तुतियां 'सेतु', 'चक्षु', 'दुविधा', 'कोट' देखते सदा ही यह लगता है कि नृत्य में अमूर्त भी खंड—खंड अखंड विचार बन हममें समाता चला जाता है।
कमुदिनी ने नृत्य में लोक का आलोक संजोया। छाया—प्रकाश, रंगो और परिधानों के बंधे—बंधाए ढर्रे को तोड़ते कथक में कोरियोग्राफी का नया शास्त्र आरंभ किया। कथक में बेले सरीखी छलांग लगाते उड़ान के दृश्य प्रस्तुत करना, तैरना, फिसलना और उतरने की जो अंग—क्रियाएं कुमुदिनी ने ईजाद की, वह कथक के भविष्य का उजास है। नृत्य में अपने आपको वह विसर्जित कर देती थी। यह उनकी कला—दृष्टि ही थी जिसमें उन्होंने नृत्य में बाधा बनते दुपट्टे को हटाकर पोशाक की रूढ़ियों को तोड़ा। उनकी नृत्य प्रस्तुति 'दुविधा' महिला के आंतरिक संघर्ष की व्यंजना है। इसमें पहली बार इलेक्ट्रॉनिक संगीत का प्रयोग हुआ। ऐसे ही सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता 'कोट' पर उन्होंने विरल नृत्य—रचा। 'उमराव जान' फिल्म का नृत्य निर्देशन किया।
कथक में एकल की बजाय सामूहिक नृत्य की उनकी दृष्टि पर एक दफा संवाद हुआ तो उन्होंने कहा, 'समूह नृत्य मे साथ—साथ संगत महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है—रोशनी, छाया, अंधेरे के साथ लयबद्धता।' अहमदाबाद में अपने नृत्य—स्कूल 'कदंब' को इसी उद्देश्य से उन्होंने शुरू किया था कि जो कुछ चल रहा है, उससे इतर कथक में नयी सोच को आयाम दिए जाएं। खुद उन्होंने शंभु महाराज, पंडित सोहन लाल, सुंदर प्रसाद आदि से नृत्य सीखा परन्तु विषय-आधारित प्रस्तुतियों के अंतर्गत लंबी कथा की बजाय अमूर्त अवधारणाओं को कथक में जीवंत करते उसमें सौंदर्य की नई भाव—दृष्टि जोड़ी।
कुमुदिनी ने कृषि में स्नातक की डिग्री ली थी। वह अच्छी घुड़सवार थी। भरतनाट्यम की अच्छी नृत्यांगना थी। पर साधा अपने को कथक में ही। वह जब 16 वर्ष की हुई तो रामगोपाल के साथ लंदन की यात्रा पर गई। बेले और पश्चिम के दूसरे नृत्यों की बारीकियों में जाते बाद में कथक में भी इनका समावेश किया।
नृत्य में कोरियोग्राफी का जो व्याकरण कुमुदिनी लाखिया ने सिरजा, उसका मूल था—प्रकाश, परिधान, सजने—संवरने के साथ थिरकन का ऐसा समन्वय जिसमें नृत्य करते आप विचार का आलोक बन जांए। थिरकती देह का सौंदर्य में विसर्जन हो जाए और रह जाए बस अंग—अंग भाव—भव! वह ठीक ही कहती थी, 'मैं नृत्य नहीं सिखार्ती नर्तक बनाती हूं।' माने नृत्य में कुछ भी बनावटीपन नहीं रहे। नर्तक अपनी कला का प्रदर्शन करे तो देखने वाले अपने आप नाचने लग जाए। उनका निधन कथक ही नहीं नृत्य की उस भारतीय विरासत से बिछोह है, जिसमें कोई कलाकार अपने तई शास्त्रीय सिद्धान्तों को बरकार रखते समय—संदर्भों में कलाओं को जीवंत करता है।