'रेशमा
और शेरा' फिल्म
का एक बहुत ही प्यारा
गीत है—'तू चंदा मैं चांदनी,
तू तरुवर मैं
शाख रे'। मांड राग
के आलोक में
संगीतकार जयदेव ने
इसे रचा है। लता मंगेशकर
ने हृदयनाथ मंगेशकर
के संगीत में
कभी 'लेकिन' फिल्म
में 'केसरिया बालम'
का स्वर—माधुर्य भी
इसी में बिखेरा।
गीत और भी हैं। याद
करें, 'अभिमान' का
'अब तो है तुमसे हर
खुशी अपनी'। 'बैजू बावरा'
का 'बचपन की मोहब्बत को'। पूरी शृंखला
है, मांड से प्रेरित। मांड माने
मन की बात। मांड स्वर—उजास है। प्रेम,
शृंगार, विरह और वेदना से
जुड़ा संगीत। पर्व,
उत्सव और मांगलिक
कार्य में घरों
की दीवारों, आंगन
को अलंकृत चित्रों
से सजाने की
प्रख्यात लोक चित्र
शैली भी है, मांडणा। मांड राग
कुछ—कुछ ऐसी
ही है—संगीत में
जीवन—रस घोलती।
रेत से हेत जगाती। मधुर
और शृंगारिक।
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जागरण, 12 मई 2025 |
मूलतः
राजस्थान से जुड़ी
यह लोक में घुली शास्त्रीय
राग है। स्वरों
पर जाएंगे तो
यह खमाज सरीखी
लगेगी। विष्णुनारायण भातखंडे
की परम्परा को
मानें तो यह राग बिलावल
थाट में आता है। इसमें
निबद्ध बोलों पर
गौर करेंगे तो
यह भी अनुभूत
होगा, यह मिश्र
में अंतर्मन माधुर्य
जगाता है। राजस्थान
में प्रख्यात लोक
गायिका अल्लाह जिलाई
बाई, मांगी बाई,
गवरी देवी ने मांड में
निषाद प्रयोग में
बिछोह, शृंगार को
गहरे से जिया है। 'केसरिया
बालम आओ नीं, पधारो म्हारे
देश' के बोलों
में यह राजस्थान
की आवभगत से
जुड़ी मनुहार—संस्कृति का
भी पर्याय है।
अल्लाह जिलाई बाई
का 'पधारो म्हारे
देस' एलबम बहुत
मशहूर हुआ। असल
में उनके उस्ताद
ग्वालियर घराने से
जुड़े राजगायक थे
सो उनकी आवाज
का संस्कार भी
ग्वालियर अंग से
हुआ। इसलिए मांड
में वह ठुमरी,
ख्याल सरीखे प्रभाव
लाती रही। राजस्थान
के सीमावर्ती क्षेत्रों
में लंगे, मांगणियार
लोक—गायक घरानों
ने भी इसे विलम्बित लय की बंदिशों में ख्याल
की भांति स्वर-लालित्य
में निखारा है।
सुनेंगे तो यह भी लगेगा
राग के लोक—रूप में शास्त्रीय
संगीत की गहराई
तक पहुंचने की
व्याकुलता इसमें समाई है। शुद्ध शास्त्रीय नहीं पर उसके रूपात्मक
सौंदर्य की लोक छटाओं में
समृद्ध—संपन्न यह
गान में ठहराव
और लय का विरल सौंदर्य
है।
स्वर—सहजता, मात्राओं के विशिष्ट
क्रम और ताल के विभिन्न
अंतरालों की मधुर
व्यंजना है—मांड। मुझे
लगता है, यह राग नहीं
स्वर—माधुर्य की संस्कृति
है। कभी अल्लाह
जिलाई बाई से लम्बा संवाद
हुआ था। उनका
कहा याद आ रहा है,
मांड दोहों की
अलंकृति है। भारत
की लोक रागों
में निबद्ध शास्त्रीयता
का संधान करना
हो तो मांड सहायक सिद्ध
होगी। कहें, मांड
भारत की लोक में गूंथी
शास्त्रीय राग है।
गतिपूर्ण सांगीतिक पंक्तियों द्वारा
एक मात्रा में
पिराई यह किसी माला में
गूंथे मोतियों सरीखी
है।
संगीत
रत्नाकर में मरू प्रदेश के
राग से इसका संदर्भ है
तो मराठी लोक
नाट्यों में विभिन्न
तालों में यह आलोकित होता
है। बांग्ला के
महानतम कवियों में
से एक काजी नजरुल इस्लाम
के गीतों, रवीन्द्र
संगीत में भी मांड कहीं
भीतर तक बसा मिलेगा। दक्षिण भारत
के 'धीर शंकरा
भरण' में भी मांड का
स्वर आलोक है।
कर्नाटक संगीत के
नाग स्वरम्, वायलिन,
वीणा के बहुत
से रिकॉर्ड मांड
राग से ही निकले हैं।
मीरा के पद भी तो
मांड का ही लोक—आलोक लिए
है। किशोरी अमोणकर,
कुमार गंधर्व, केसरबाई,
जे.एल. रानाडे,
हीराबाई बड़ौदकर की
गाई रचनाओ में
मांड, मांड भटियार,
मिश्र मांड, खमाज
मांड में निबद्ध
ख्याल, भजन और ठुमरियां सुनेंगे तो
मन करेगा सुनें
और बस सुनते
ही रहें। एक
और भी मांड का स्वरूप
है—आसा मांड।
मांड के पारम्परिक
स्वरूप से यह थोड़ी भिन्न
है पर परमेश्वर
की महिमा और
नाम का इसका बखान अद्भुत
है। गुरू ग्रंथ
साहिब में 'आसा
दी वार' इसी
का अप्रतिम उदाहरण
है। राग चन्द्रिकासार
में आता है,
'मध्यम मृद तीवर
सबै, वक्र सहज
अवरोही। सम वादी संवादी ते
माड राग सुकहोहि।'
अभिनव राग मंजरी,
संगीत सुधाकर आदि
दूसरे ग्रंथों में
भी मांड की महिमा यत्र—तत्र है। एक
महत्वपूर्ण बात और
कि मांड को जिस सहज
ढंग से गान में निभाया
जा सकता है,
वाद्य यंत्रों में
इसका वैसा निभाव
कठिन बल्कि कहें
दुर्लभ प्राय: है। आरोह-अवरोह
में वक्र। समय का कहीं कोई बंधन नहीं। जब चाहे, तब गायें, मांड की सुगंध मन को हरखाएगी।