ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Wednesday, November 27, 2024

जल संस्कृति पर मुख्य वक्ता के रूप में व्याख्यान

 मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय में 11—12 नवम्बर 2024 को 'जल संस्कृति और साहित्य' विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया।

विश्वविद्यालय के आग्रह पर 12 नवम्बर को जाना हुआ। समापन सत्र में मुख्य वक्ता के रूप में अपने विचार साझा करते हुए कहा,—'संस्कृति विचार नहीं विश्वास और हमारा आचरण ही तो है। कहें, जीवन जीने का ढंग। जल हमारे शाश्वत जीवन मूल्यों से जुड़ा है। जन्म से मृत्यु तक के तमाम संस्कारों में जल की ही तो अनिवार्यता है! जल शब्द 'जन्म' के ज और 'लय' के ल शब्द से बना है। माने सृष्टि में जीवन और उससे जुड़ी जीवंतता 'लय' का हेतु जल ही है। इसलिए ही कहें, जल है तो जीवन है!'

जल से जुड़ी इस संस्कृति पर और भी बहुत कुछ जो उपजा, साझा किया...











Tuesday, November 26, 2024

तानसेन समारोह शताब्दी वर्ष पर 'संवाद प्रवाह' में व्याख्यान

 तानसेन समारोह की शुरूआत इस बार 22 नवम्बर 2024 को जयपुर के जवाहर कला केन्द्र से हुई। 

प्रतिवर्ष राष्ट्रीय स्तर पर ग्वालियर में आयोजित किए जाने वाले 'तानसेन समारोह' का यह सौंवा वर्ष है। इस अवसर पर राज्यों में भी इसे मनाए जाने की पहल हुई है। इसी कड़ी में जयपुर में तानसेन के संगीत अवदान पर विशेष संवाद प्रवाह का आयोजन हुआ। 

मध्यप्रदेश संस्कृति मंत्रालय और जवाहर कला केन्द्र, जयपुर के आमंत्रण पर संवाद प्रवाह में बोलने जाना हुआ। तानसेन के सांगीतिक अवदान पर अपने विचार रखे—

link :

https://www.youtube.com/live/t6pc_E8Jasw?si=hiLMrgGr6BurvaX7




साहित्य अकादेमी, मुम्बई की वेब शृंखला के अंतर्गत कविता पाठ—

 साहित्य अकादेमी, मुम्बई की वेब शृंखला के अंतर्गत कविता पाठ—




“तानसेन समारोह” शताब्दी वर्ष पर...

राजस्थान पत्रिका, 23 नवम्बर 2024

विश्वभर में प्रतिष्ठित “तानसेन समारोह” का यह शताब्दी वर्ष है। मध्यप्रदेश सरकार ने तानसेन समारोह के सौ वर्ष पूर्ण होने पर ग्वालियर के साथ—साथ देशभर के राज्यों मे इसे मनाने की पहल की है। 

बहरहाल, 'आइने—अकबरी' प्रणेता अबुल फजल ने ठीक ही लिखा है, 'तानसेन के समान गायक विगत सहस्त्र वर्षों में जन्मा ही नहीं।' हमारे यहां इस समय जो शास्त्रीय संगीत है, राग-रागिनियां गाई जाती है, वह तानसेन की ही देन है। प्राचीन संस्कृत ग्रंथो में जो संगीत चर्चा है, उसमें आज का संगीत कहां है! वहां प्रबंध का उल्लेख है। तानसेन ने ध्रुवपद की परम्परा को कंठ—सिद्ध कर उसे लोकप्रिय ही नहीं बनाया बल्कि उसे जीवन से जोड़ा।  एक दौर वह भी आया जब हर कोई अपने बच्चों को तानसेन बनाने का इच्छुक होने लगा था। श्रोता शायद कम होने लगे थे, इसलिए विष्णु दिगंबर पलुस्कर को कहना पड़ा, 'हमें तानसेन नहीं कानसेन बनाने हैं।'

प्रख्यात बंगाली लेखक वीरेन्द्र राय चौधुरी का शोध बताता है, वाराणसी के भावभंगी-गीत गायक मुकुन्दराम पाण्डे के तानसेन पुत्र थे। असल नाम था—रामतनु। ग्वालियर के हजरत गौस मुहम्मद सिद्ध पीर के आशीर्वाद से उनका जन्म हुआ। हजरत मुहम्मद गौस ही उन्हें ग्वालियर दरबार ले गए, उनका विवाह करवाया। विवाह के बाद उनका नाम मुहम्मद अता अली खां भी कहीं—कहीं पढ़ने में आता है। पर यह शायद इसलिए है कि कईं स्थानों पर उनकी संगीत योग्यता को देखते उन्हें 'अताई' लिखा है। संगीत ग्रंथ 'रागदर्पण' में 'अताई' की परिभाषा है—वह जो 'इल्म' यानी विद्या का 'अमल' करना जानता है। 

 तानसेन बचपन से ही किसी भी स्वर को सुनकर हूबहू नकल कर लेते थे। एक दफा स्वामी हरिदास वाराणसी तीर्थ—यात्रा को आए। वह वाराणसी की सीमा पहुंचे तब रामतनु वन में गायें चरा रहा था। अपरिचित सन्यासी और शिष्यों को देखकर उसे विनोद सूझा। उसने वृक्ष के पीछे छिपकर बाघ के समान जोरदार आवाज निकाली। शिष्य भयभीत हो गए। पर हरिदास ने समझ लिया कि वाराणसी में बाघ  नहीं हो सकता। शिष्यों से ढूंढवाया तो वृक्ष की ओट में रामतनु मिल गया। स्वामी हरिदास ने उसके पिता मकरंद पाण्डे से शिष्य रूप में रामतनु को मांग लिया। गुरु हरिदास से वृंदावन में दस वर्ष तक रामतनु ने संगीत की गहन शिक्षा ली। रामतनु नाद—सिद्ध हेतु हुए और बाद में संगीत सम्राट तानसेन कहाए। 

कहते हैं एक बार अकबर के अतिरिक्त आग्रह पर उन्होंने दरबार में दीपक राग गाया। संगीत सभा के चारों ओर दीप सजाए गए। तानसेन ने गाना प्रारंभ किया और उनका बदन जलने लगा। सभा के सारे दीपक जल उठे। दुहिता रूपवती ने इधर घर में मेघ मल्हार गाया। इससे औचक बादलों की घनघोर घटा संग जलधारा बही। इसी से तानसेन का दग्ध शरीर शीतल हुआ। पर इसके बाद वह लम्बे समय तक बिस्तर पर बीमार पड़े रहे। 

उनके गान से जुड़ी बहुत सी अलौकिक गाथाएं और भी है। एक यह भी है, 'भलो भयो जो विधि ना दिये शेषनाग के कान....’ माने यह अच्छा हुआ जो विधाता ने शेषनाग को सुनने की शक्ति नहीं दी अन्यथा तानसेन की तान सुनकर अनन्तनाग सिर हिला देते और मेदिनी यानी यह पृथ्वी ध्वंस हो जाती।  तानसेन नाम की कथा भी कम रोचक नहीं है। कहते हैं, एक दफा तानसेन ने इतना मधुर गाया कि बादशाह इतने विभोर हुआ कि उसने अपने गले का मणि—हार उतारकर उनके गले में पहना दिया। तानसेन माने वह जो संगीत की अपनी 'तान' द्वारा 'सैन' कर दे। यानी हदृय को द्रवीभूत करने की क्षमता रखे। तानसेन ऐसे ही थे। संगीत सम्राट। तानसेन समारोह का 'शताब्दी वर्ष' उनके संगीत अवदान को स्मरण करते भारतीय संगीत को समृद्ध करने का हेतु बने। आमीन!



श्रीगंगानगर में बाल साहित्य पर आयोजित परिसंवाद

साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली के आमंत्रण पर 

श्रीगंगानगर में बाल साहित्य पर आयोजित परिसंवाद में मुख्य अतिथि के रूप में भाग लिया...इस दौरान राजस्थानी की डायरी विधा की पुस्तक 'कथूं—अकथ' का लोकार्पण भी हुआ।







Sunday, November 17, 2024

कला-राग की आभा: रस निरंजन


जानकीपुल-- June 6, 2021 .. 188Comments5 Mins Read

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राजेश कुमार व्यास की किताब ‘रस निरंजन’ समकालीन कला पर लिखे निबंधों का संग्रह है। इस किताब पर यह विस्तृत टिप्पणी लिखी है चंद्र कुमार ने। चंद्र कुमार ने कॉर्नेल विश्वविद्यालय, न्यूयार्क से पढ़ाई की। वे आजकल एक निजी साफ्टवेयर कंपनी में निदेशक है लेकिन उनका पहला प्यार सम-सामयिक विषयों पर पठन-लेखन है-

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कलाएँ वैसे अपने अर्थ का आग्रह नहीं करती, बस अपने होने के चिन्ह छोड़ती हैं। उन चिन्हों से पाठक-दर्शक-श्रोता अपने लिये जो ग्रहण कर सके, वही कलाओं का उद्देश्य है। इसीलिये प्रयाग शुक्ल कहते हैं कि कलाओं को देखना भी एक कला है। इस देखने-महसूस कर सकने में अक्सर कला-आलोचक, कला और रसिकों के मध्य एक सेतु का काम करते हैं। कला वस्तुत: अनंत के विस्तार की यात्रा होती है। इस निरंजन यात्रा में कोई सहचर अगर सहजता से रास्ता बताता चले, तो यात्रा का आनन्द असीमित हो सकता है। विभिन्न कलाओं को समदृष्टि से कला-रसिकों के लिये व्याख्यायित करना दरअसल कला को ही समृद्ध करना है। इस लिहाज़ से कला-आलोचक डॉ. राजेश कुमार व्यास का कलाओं पर एकाग्र — ‘रस निरंजन’ उनकी कला लेखन की यात्रा का ऐसा पड़ाव है जिस पर बरबस ही ध्यान जाता है।

मूलत: उनका लेखकीय सफ़र एक साँस्कृतिक रिपोर्टर के रूप में शुरू हुआ जो नाट्य, संगीत, चित्रकला, संस्थापन कला और सिनेमा से होते हुए यहाँ तक पहुँचा है जहाँ वो कला के समग्र रूपों के एक वाचक के रूप में हमसे मुख़ातिब होते हैं। कहन के अन्दाज़ में लिखते हुए वे कला के विभिन्न रूपों से हमें परिचित करवाते हैं। उनके भीतर के यायावर ने उन्हें एक अलग तरह के कला-आलोचक के रूप में स्थापित करने में महत्ती भूमिका निभाई है। यायावर कहीं देर तक नहीं ठहरता लेकिन जहाँ है, वहाँ पूरी शिद्दत से वह सब कुछ देख-समझ लेता है जिसे फिर बाद में वह जब चाहे, उसी शिद्दत से महसूस कर सकेगा। उनका कला-लेखन शास्त्रीय तो है पर जड़ता लिये नहीं है। वे मूलत: भारतीय दृष्टि से कला आलोचना करते हैं लेकिन ज़रूरत पड़ने पर पश्चिमी दृष्टि और विचारकों के हवालों से अपनी बात के मर्म को समझाने में भी संकोच नहीं करते। जब वे ऐसा करते हैं तो यह स्वत:-स्फूर्त होता है, न कि कोई थोपा हुआ उदाहरण।

शास्त्रीय गायन पर इत्मिनान से लिखने वाला कब ग़ज़ल (जगजीत सिंह), भजन (हरिओम शरण) और लोक-गायकी के रंग से सराबोर रेशमा तक पर सहजता से

अपनी बात कह जाता है, अचंभित करता है। इसी तरह संगीत के साथ ही नाट्य-कला, चित्रकला, फ़ोटोग्राफ़ी, संस्थापन कला, नृत्य कला इत्यादि कला के विभिन्न अनुशासनों में वे जिस प्रकार सहजता से उन कलाओं का शाब्दिक चित्रण करते हैं वह पाठकों को कला जगत के विभिन्न आयामों को आत्मसात् करने में सहायक है। दरअसल, कला के विभिन्न अनुशासनों का अनवरत अनुशीलन उन्हें इस मुक़ाम पर ले आया है जहाँ वो इन कला रूपों पर सहजता से लिखते-बोलते हैं। उनका कला-आस्वादन, एक कला-रसिक के रूप में उनके निबंधों में भाषिक रूप में उतरता है। वह पाठक को इतनी सहजता से कला के सूक्ष्म विश्लेषण तक ले जाता है जहाँ कला से प्राप्त आनन्द लेखक और पाठक एकसार ग्रहण करते हैं। रस निरंजन में यह आनन्द पाठकों को हर आलेख में महसूस होता है।

एकाग्र की सहज और सुरुचिपूर्ण भाषा व छोटे लेकिन सारगर्भित निबन्ध पाठकों के सामने विहंगम कला-संसार के भीतर पहुँचने के द्वार-सा कार्य करते हैं। रस निरंजन को पढ़ते हुए पाठकों को प्रस्तुत कला-रूप के सूक्ष्म विश्लेषण के बावजूद किसी तरह का भाषाई आडम्बर नहीं दिखता। एकाग्र में संचयित निबंध विभिन्न कला-रूपों, कला-साधकों और कला की दुनिया के अनजाने स्वरूपों को पाठकों के सामने खोलते हैं लेकिन इन निबंधों में एक अन्त:कथा है जो इन स्वतंत्र निबंधों को एक सूत्र में पिरो कर रखती है। यह अन्त:कथा दरअसल विभिन्न कला-रूपों के ज़रिये आस्वादन और अन्तत: भीतर के तम को उजास देने वाला वह प्रकाश है जो हर कला का अन्तिम उद्देश्य होता है। देशज भाषा का स्वच्छंद उपयोग, कलाओं में लोक का सतत् स्पंदन और कलाओं के अन्त:सम्बन्धों का सहज विश्लेषण इस एकाग्र को सिलसिलेवार पढ़ने हेतु प्रेरित करता है।

लेखक कलाकार की विराटता से नहीं, बल्कि उसके कला-कर्म के बारीक विश्लेषण से जो कला-दृश्य हमारे सामने रखता है वहीं इस एकाग्र की विशेषता है। इस छोटी सी पुस्तक में समकालीन भारतीय कला के सुपरिचित साधकों के कला-कर्म पर आलेख मिलेंगे। कला-लेखन के साथ ही कला-रसिकों और विद्यार्थियों को इस पुस्तक से भारतीय कला की विराट छवि अपने सूक्ष्मतम विश्लेषण के साथ, सहज भाषा में प्राप्त होगी। प्रेरणा श्रीमाली के नृत्य पर डॉ. राजेश कुमार व्यास का कथन है कि उनका नृत्य मौलिक है, वह पारम्परिक होते हुए भी जड़त्व धारण नहीं करता, नृत्य में शास्त्रीयता है लेकिन वह दुरूह नहीं। यही बात स्वयं डॉ. व्यास के कला-लेखन के लिये भी कही जा सकती है। उनकी कला-दृष्टि, भाषिक सहजता और भावपूर्ण संप्रेषण उनकी भाषा की शास्त्रीयता को बचाये रखते हुए भी उसे अकादमिक और क्लिष्ट नहीं होने देते। वह कलाओं का आस्वादन करते हुए पाठकों के साथ आनन्द की अनुभूति साझा करते है।चार खण्डों में समायोजित इक्कतीस निबन्धों में लेखक ने समकालीन भारतीय कला का पूरा दृश्य पेश किया है जिसे बोधि प्रकाशन, जयपुर ने ‘बोधि पुस्तक पर्व’ के पाँचवें बँध के रूप में नौ अन्य पुस्तकों के साथ प्रकाशित किया है। दस पुस्तकों का यह सैट मात्र सौ रुपयों में पाठकों के लिये उपलब्ध है।

~ चंद्रकुमार

पुस्तक: रस निरंजन

लेखक: डॉ. राजेश कुमार व्यास

प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, जयपुर

पृष्ठ: 96

प्रकाशन वर्ष: दिसम्बर 2020

मूल्य: 10/- (पूरा सैट – 100/-)


 




Friday, November 15, 2024

'कथूं—अकथ' माने 'कहता हूं, वह जो अनकहा है...

'देव दीपावली' पर 'कथूं—अकथ' माने 'कहता हूं, वह जो अनकहा है'
बचपन से ही डायरी लिखता आ रहा हूं—कभी सहज हिंदी में लिखता हूं तो कभी अनायास अपनी मातृभाषा राजस्थानी में शब्द झरते हैं। 
यह साहित्य और संस्कृति से सरोकारों की मेरी अनुभूतियों का लोक—आलोक है। 
चिंतन—मनन भी इसमें है। 
बहुत सारी बातें—यादें...
"बोधि प्रकाशन" ने इसे प्रकाशित किया है--


Monday, November 11, 2024

सौरंगी सारंगी के पंडित रामनारायण जी का बिछोह

अमर उजाला, रविवारीय में..

पंडित रामनारायण जी का सान्निध्य निरंतर मिलता रहा।  उनसे जुड़ी बहुत सी यादें—बातें हैं। उनके बिछोह के साथ ही सारंगी के भारतीय युग का अवसान हो चला है। मुझे लगता है, यह पंडित रामनारायणजी ही थे जिन्होंने सारंगी के सौ रंगों का सार समझाया। सारंगी का विरल माधुर्य रचते इसे जन— मन से जोड़ा। ...

अमर उजाला, 10 नवम्बर 2024


संस्कृति का उजास

पत्रिका, 9 नवम्बर 2024

भारतीय संस्कृति पर्वों में गूंथी है। गहरे और गूढ़ अर्थ इनमें समाए हैं। हिंदू कैलेंडर पृथ्वी से दिखने वाले चंद्रमा और सूर्य की गतिविधियों पर केन्द्रित है। हर मास का अपना अध्यात्म संस्कार है।परन्तु इनमें विज्ञान के संस्कार भी समाहित है। कार्तिक दामोदर मास है। दाम’ माने रस्सी और ‘उदर’यानी पेट। दामोदरष्टकम मे आता है, दधिभाण्ड फोड़ने के कारण माँ यशोदा के डर से कृष्ण ऊखल से दूर दौड़ रहे हैं। पर माँ यशोदा ने उनसे तेज दौड़कर उन्हें पकड़ ऊखल से बाँध दिया। ऐसे दामोदर भगवान को मैं प्रणाम करता हूं।

विष्णुसहस्रनाम में यह भगवान विष्णु का 367वाँ नाम है। दामोदर माने वह जिसके हृदय में ब्रह्माण्ड बसता है। कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा से पूर्णिमा तक नदी स्नान अथवा घर में ही जल्दी उठ पवित्र नदियों के ध्यान—ज्ञान, दीपदान का महत्व है। ज्योतिष—विज्ञान कहता है, इस माह सभी को प्रकाश देने वाले सूर्य अपनी नीच राशि तुला में रहते हैं। इससे प्रकाश का क्षय हो नकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है। दीपक जलाने और ध्यान—ज्ञान से सर्वत्र सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। आयुर्वेद के अनुसार इस समय वायु की रुक्षता कम हो जाती है। चन्द्रमा का बल बढ़ जाता है। चन्द्र की सौम्य एवं स्निग्ध किरणों का जल शरीर—अंग प्रवाह सुधारकर मन को उमंग से भरता है। चरक संहिता में कार्तिक मास के इस जल को "हंसोदक" माने अमृत समान माना गया है। ब्रह्म मुहूर्त में कार्तिक माह में स्नान का यही रहस्य है।

कार्तिक पूर्णिमा भी तो महाकार्तिकी है। इसी दिन भगवान शिव ने त्रिपुरासर का वध किया। त्रिपुरासर ने तीनों लोकों में त्राही त्राही मचा रखी थी। पुराण कथाओं मे आता है, भगवान शिव ने असंभव रथ पर सवार हो त्रिपुरासर का वध किया। सूर्य—चंद्र इसके पहिए थे। सृष्टा सारथी बने। श्रीहरि बाण और अग्नि नोक बनी।

वासुकी धनुष की डोर, और मेरूपर्वत धनुष बने थे। इंद्र, वरुण, यम, और कुबेर जैसे लोकपाल इस रथ के घोड़े बने। तमिल साहित्य में आता है,युद्धक्षेत्र में ब्रह्मा और विष्णु भी कुछ नहीं कर पा रहे थे। तब एक क्षण आया जब त्रिपुर यानी तीनों किले एक सीध में आ गए। शिव मुस्कुराए और किले जलकर राख हो गए। तमिल में शिव को  "सिरिथु पुरामेरिता पेरुमन" कहा गया है। वह जिसकी मुस्कुराहट मात्र से त्रिपुरासर जलकर खाक हो गया। त्रिपुर दाह पर देवताओं ने शिव की नगरी काशी पहुंच दीप जलाए। यही देव—दीपावली कहलाई।

सिखों के पहले गुरु नानक देव जी का जन्म भी कार्तिक पुर्णिमा पर हुआ। इसलिए यह दिन प्रकाश पर्व कहा गया। कार्तिक पूर्णिमा पर ही भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार ले हयग्रीव का वध किया। कथा आती है, सृष्टि रचयिता ब्रह्मा के निद्रामग्न होने पर हयग्रीवासुर वेदों को चुरा समुद्र में ले गया। सृष्टि अज्ञान के अंधकार में डूब गई। नारायण ने तब मत्स्य रूप धारण कर उसका वध किया। वेदों को मुक्त कराया। इसी अवतार में उन्होंने जल प्रलय से भी पृथ्वी को बचाया। वह मछली बन संसार के प्रथम पुरुष मनु के कमंडल में आए और उनसे संसार को बचाने के लिए बड़ी नाव का निर्माण करने को कहा। इस नाव पर सवार होकर ही बाद में मनु सप्त ऋषियों, बीजों, पशु-पक्षियों के जोड़ों संग सुरक्षित हुए। भगवान विष्णु ने बड़ी मछली बनकर मनु की बनाई नाव के निकट आकर वासुकि नाग की रस्सी से जल प्रलय से उन्हें बाहर सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया। तो कहें, भारतीय संस्कृति का उजास लिए है कार्तिक मास।


Tuesday, November 5, 2024

नाद—ब्रह्म है-डागर वाणी

 दैनिक जागरण—सोमवार,'सप्तरंग' में ...

"...डागर वाणी नहीं नाद—ब्रह्म है। ध्रुवपद का स्वर—लालित्य। इसमें जड़त्व नहीं है। गोपाल दास के पुत्र इमाम बख्श के पुत्र बाबा बहराम खान ने डागर वाणी में आलापचारी को अपने ढंग से निरूपित ही नहीं किया बल्कि ध्रुवपद का नवीन वह व्याकरण भी बनाया जिससे यह संगीत माधुर्य में और अधिक जीवंत हुआ। उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर को निरंतर सुना है और पाया है, वह नाद ब्रह्म से साक्षात् कराते..."

दैनिक जागरण, 4 नवम्बर 2024