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राजस्थान पत्रिका, 23 नवम्बर 2024 |
विश्वभर में प्रतिष्ठित “तानसेन समारोह” का यह शताब्दी वर्ष है। मध्यप्रदेश सरकार ने तानसेन समारोह के सौ वर्ष पूर्ण होने पर ग्वालियर के साथ—साथ देशभर के राज्यों मे इसे मनाने की पहल की है।
बहरहाल, 'आइने—अकबरी' प्रणेता अबुल फजल ने ठीक ही लिखा है, 'तानसेन के समान गायक विगत सहस्त्र वर्षों में जन्मा ही नहीं।' हमारे यहां इस समय जो शास्त्रीय संगीत है, राग-रागिनियां गाई जाती है, वह तानसेन की ही देन है। प्राचीन संस्कृत ग्रंथो में जो संगीत चर्चा है, उसमें आज का संगीत कहां है! वहां प्रबंध का उल्लेख है। तानसेन ने ध्रुवपद की परम्परा को कंठ—सिद्ध कर उसे लोकप्रिय ही नहीं बनाया बल्कि उसे जीवन से जोड़ा। एक दौर वह भी आया जब हर कोई अपने बच्चों को तानसेन बनाने का इच्छुक होने लगा था। श्रोता शायद कम होने लगे थे, इसलिए विष्णु दिगंबर पलुस्कर को कहना पड़ा, 'हमें तानसेन नहीं कानसेन बनाने हैं।'
प्रख्यात बंगाली लेखक वीरेन्द्र राय चौधुरी का शोध बताता है, वाराणसी के भावभंगी-गीत गायक मुकुन्दराम पाण्डे के तानसेन पुत्र थे। असल नाम था—रामतनु। ग्वालियर के हजरत गौस मुहम्मद सिद्ध पीर के आशीर्वाद से उनका जन्म हुआ। हजरत मुहम्मद गौस ही उन्हें ग्वालियर दरबार ले गए, उनका विवाह करवाया। विवाह के बाद उनका नाम मुहम्मद अता अली खां भी कहीं—कहीं पढ़ने में आता है। पर यह शायद इसलिए है कि कईं स्थानों पर उनकी संगीत योग्यता को देखते उन्हें 'अताई' लिखा है। संगीत ग्रंथ 'रागदर्पण' में 'अताई' की परिभाषा है—वह जो 'इल्म' यानी विद्या का 'अमल' करना जानता है।
तानसेन बचपन से ही किसी भी स्वर को सुनकर हूबहू नकल कर लेते थे। एक दफा स्वामी हरिदास वाराणसी तीर्थ—यात्रा को आए। वह वाराणसी की सीमा पहुंचे तब रामतनु वन में गायें चरा रहा था। अपरिचित सन्यासी और शिष्यों को देखकर उसे विनोद सूझा। उसने वृक्ष के पीछे छिपकर बाघ के समान जोरदार आवाज निकाली। शिष्य भयभीत हो गए। पर हरिदास ने समझ लिया कि वाराणसी में बाघ नहीं हो सकता। शिष्यों से ढूंढवाया तो वृक्ष की ओट में रामतनु मिल गया। स्वामी हरिदास ने उसके पिता मकरंद पाण्डे से शिष्य रूप में रामतनु को मांग लिया। गुरु हरिदास से वृंदावन में दस वर्ष तक रामतनु ने संगीत की गहन शिक्षा ली। रामतनु नाद—सिद्ध हेतु हुए और बाद में संगीत सम्राट तानसेन कहाए।
कहते हैं एक बार अकबर के अतिरिक्त आग्रह पर उन्होंने दरबार में दीपक राग गाया। संगीत सभा के चारों ओर दीप सजाए गए। तानसेन ने गाना प्रारंभ किया और उनका बदन जलने लगा। सभा के सारे दीपक जल उठे। दुहिता रूपवती ने इधर घर में मेघ मल्हार गाया। इससे औचक बादलों की घनघोर घटा संग जलधारा बही। इसी से तानसेन का दग्ध शरीर शीतल हुआ। पर इसके बाद वह लम्बे समय तक बिस्तर पर बीमार पड़े रहे।
उनके गान से जुड़ी बहुत सी अलौकिक गाथाएं और भी है। एक यह भी है, 'भलो भयो जो विधि ना दिये शेषनाग के कान....’ माने यह अच्छा हुआ जो विधाता ने शेषनाग को सुनने की शक्ति नहीं दी अन्यथा तानसेन की तान सुनकर अनन्तनाग सिर हिला देते और मेदिनी यानी यह पृथ्वी ध्वंस हो जाती। तानसेन नाम की कथा भी कम रोचक नहीं है। कहते हैं, एक दफा तानसेन ने इतना मधुर गाया कि बादशाह इतने विभोर हुआ कि उसने अपने गले का मणि—हार उतारकर उनके गले में पहना दिया। तानसेन माने वह जो संगीत की अपनी 'तान' द्वारा 'सैन' कर दे। यानी हदृय को द्रवीभूत करने की क्षमता रखे। तानसेन ऐसे ही थे। संगीत सम्राट। तानसेन समारोह का 'शताब्दी वर्ष' उनके संगीत अवदान को स्मरण करते भारतीय संगीत को समृद्ध करने का हेतु बने। आमीन!
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