ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मन्त्र है चरैवेति...चरैवेति. जो सभ्यताएं चलती रही उन्होंने विकास किया, जो बैठी रहीं वे वहीँ रुक गयी. जल यदि बहता नहीं है, एक ही स्थान पर ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है. इसीलिये भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा चरत भिख्वे चरत...सूरज रोज़ उगता है, अस्त होता है फिर से उदय होने के लिए. हर नयी भोर जीवन के उजास का सन्देश है.

...तो आइये, हम भी चलें...

Thursday, December 26, 2024

तबले में जीवन छंद रचने वाले 'वाह! उस्ताद'

 तबले की स्वतंत्र सत्ता से ठीक से किसी ने परिचित कराया तो वह उस्ताद ज़ाकिर हुसैन थे। वह बजाने के लिए ही नहीं बजाते थे, तबले में रच—बस अपने को उसमें विलीन करते थे। जब भी उन्हें सुना, ताल की नई दृष्टि पाईं। गायन और दूसरे वाद्यों की संगत से जुड़े तबले में छंद गुँथाव से एक नई ताल - भाषा किसी ने सिरजी है तो वह उस्ताद जाकिर हुसैन थे। उन्होंने तबले में वार्तालाप संभव किया। राग ताल की उनकी भाषा इसलिए लुभाती थी कि वहां काल प्रवाह से साक्षात होता था।...ध्वनियों में कितने—कितने छंद वह गूंथते रहे हैं...

'दैनिक जागरण' 23 दिसम्बर 2024


Wednesday, December 25, 2024

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आलोचना पुरस्कार

पुरस्कार के लिए कभी लिखना नहीं हुआ। पर, जब किसी कृति को इस बहाने स्वीकृति मिलती है तो सुखद लगता है। 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी को ही तो पढ़—गुन थोड़ी कुछ समझ बनी है... 









Saturday, December 21, 2024

ग्रंथ को ही गुरु मानने वाली संस्कृति

पत्रिका, 21 दिसम्बर 2024
संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुण है। समूह में व्याप्त विश्वास, आस्थाएं और कलाएं संस्कृति की ही व्यंजना है। गुरु—शिष्य परम्परा तो और भी स्थानों पर है पर ग्रंथ को गुरु मान पूजने की संस्कृति विश्व में कहीं है तो वह हमारे यहां ही है। इस संस्कृति के उन्नायक कोई  रहे हैं तो वह है गुरु गोबिन्द सिंह। उनके व्यक्तित्व पर जब भी मन जाता है, अनूठा आलोक पाता हूं। वह'सरबंसदानी' थे। अपने सहित पूरे परिवार का दान करने वाले। उनके चार साहिबजादों के बलिदान की स्मृति में ही पिछले वर्ष से हर वर्ष 26 दिसंबर को 'वीर बाल दिवस' मनाने की पहल देश में हुई है।

गोबिन्द सिंहजी गुरु नहीं भारतीय संस्कृति की सुगंध है। पिता का नाम त्यागमल था पर वह तेगबहादुर कहाए। माने तलवार के धनी। धर्म परिवर्तन नहीं करने पर औरंगज़ेब ने उनका सिर कटवा दिया। नौ वर्ष की कम उम्र में ही गोबिन्द सिंह गुरु गद्दी पर बैठे। यह वह दौर था जब मुगल शासक हिंदुओं को चिड़ियों का झुंड कहते थे। बाज के आने से जैसे चिड़िया भाग जाती है, उसी तरह मुगलों के अत्याचार से तितर-बितर होने वाला समूह। गोबिन्द सिंहजी ने तभी प्रतिज्ञा की 'सवा लाख से एक लड़ाऊँ तबे गोविंदसिंह नाम कहाऊँ।' माने वह इन चिड़ियों के झुण्ड में वह शक्ति उत्पन्न कर देंगे जिससे वह बाजों को मारकर खाने लग जाए। खालसा पंथ की स्थापना कर उन्होंने उपदेश दिया, किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। एक नए अभिवादन की उन्होंने शुरुआत की, 'वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरु जी की फ़तह'। 

औरंगजेब ने उनकी वीरता के सामने घुटने टेकते एक दफा अपने साथ मिलने का पत्र लिखा, एक वाहे गुरु को जैसे वह मानते हैं, ऐसे ही उनका अल्लाह है। फिर किस बात की दुश्मनी!  गुरु गोबिंद सिंह ने इन्कार करते जवाब दिया, नियत का फर्क बहुत बड़ा है। औरंगजेब के ही अनुयायी वज़ीर ख़ाँ ने धर्म परिवर्तन नहीं करने पर गुरु गोबिंद सिंह बेटों को  ज़िंदा दीवार में चिनवा दिया। अंतिम पड़ाव मे गुरु गोबिंद सिंह नांदेड़ में जब प्रार्थना बाद आराम कर रहे थे, दो युवा पठानों अताउल्ला ख़ाँ और जमशेद ख़ाँ ने उनके पेट पर छुरे से वार कर बुरी तरह से घायल कर दिया। कुछ समय बाद वह अंतिम गति को प्राप्त हो गए।

इस समय जब नई शिक्षा नीति में भारतीय ज्ञान परम्परा को लेकर बहुत उत्साह है, मुझे लगता है गुरु गोबिंद सिंह की सौंपी संस्कृति पर भी हमें नए ढंग से विचार करना चाहिए। उन्होंने अंतिम समय में उजास दिया, अब से कोई गुरु नहीं होगा। ग्रंथ ही गुरु होगा। मुझे लगता है, विश्व की कोई ऐसी संस्कृति नहीं होगी जहां ग्रंथ को ही गुरु रूप में मान्यता मिली हो।

ज्ञान—गुरु ही तो है—'गुरु ग्रंथ साहिब' । क्या नहीं है इसमें? सभी धर्मों का सार। सिखों के हरेक गुरु ने अपने अनुभवों का संचित ज्ञान इसमें संजोया है। दशवें और अंतिम गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने से पहले गुरु तेगबहादुर जी के 116 शब्द जोड़कर इसे पूर्ण किया। कबीर, रविदास, नामदेव, सैण जी, सघना जी, छीवाजी, धन्ना की वाणी इसमें है तो पांचों वक्त नमाज पढ़ने में विश्वास रखने वाले शेख फरीद के श्लोक भी हैं। सहज, सरल भाषा और कहन का सांगीतिक अंदाज इसमें है। यह संगीत के सुरों व रागों के प्रयोग में गूंथा है। गुरु ग्रंथ कहें या 'गुरुबानी' , यह—वह अनूठा उदाहरण है जिसमें सदा शरीरी गुरूस्वरूप ग्रंथ को ऊँची गद्दी पर 'पधराया' जाता है। उसपर चंवर ढलते हैं। पुष्पादि चढ़ते और बाकायदा आरती उतारी जाती है। विश्व—संस्कृति में ग्रंथ को गुरु मान उसके आदर्श के आचरण की ऐसी दृष्टि और कहीं नहीं मिलेगी।


Thursday, December 12, 2024

अहमदाबाद 'अन्तरराष्ट्रीय पुस्तक महोत्सव-2024’

अहमदाबाद में आयोजित होने वाले प्रतिष्ठित पुस्तक महोत्सव के समापन सत्र में पुस्तकें और यात्रा संस्कृति विषय पर बोलने का संयोग हुआ। इस उत्सव में 8 दिसम्बर, रविवार—समापन समारोह के सत्र में—अपनी लिखी यात्रा—संस्मरण पुस्तकों 'कश्मीर से कन्याकुमारी', 'नर्मदे हर' और 'आंख भर उमंग' से जुड़ी अनुभूतियां साझा की। गुजरात में पढ़ने की संस्कृति है। पुस्तकों से लोगों को लगाव है। 'पुस्तक महोत्सव' में सुनने वालों का हुजूम उत्साहित करने वाला था...





‘बहुवचन’ में राजस्थानी भाषा का स्वरूप और शब्द सम्पदा

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘बहुवचन’ में...राजस्थानी भाषा का स्वरूप और शब्द सम्पदा पर यह दीठ

"राजस्थानी भाषा नहीं संस्कृति है। यह ऐसी आधुनिक भाषा है, जिसमें साहित्य की सभी विधाओं में नौंवी शताब्दी से ही लिखा हुआ बहुत सारा उपलब्ध होता आ रहा है। इतिहास और संस्कृति के विरल आख्यान लिए है यह भाषा। कविन्द्र रवीन्द्र ने कभी कहा था, रवीन्द्र गीतांजलि लिख सकता है परन्तु डिंगल जैसे दोहे नहीं!

विडम्बना है, ऐसी समृद्ध, अनुपम भाषा अभी भी मान्यता की बाट जो रही है...






Tuesday, December 10, 2024

नदी से जुड़ी संस्कृति और शिव

राजस्थान पत्रिका, 7 दिसम्बर 2024

संस्कृति जीवन छंद है। 'छद्' धातु से बना है छंद। अर्थ है, आह्लादित करना। इधर घुमक्कड़ी में निरंतर यह अनुभूत किया कि कल कल बहती भारत की नदियां इस छंद की सुगंध है। यह भी पाया है, संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाएं भी नदी में ध्वनित होती हममें बसती हैं। संस्कृति के इस रम्य रूप की सौगात इधर केदारनाथ यात्रा में मिली। कपाट बंद होने से कुछ दिन पहले वहां जाने जाने का सुयोग हुआ। गौरीकुंड से केदारनाथ की पैदल खड़ी चढ़ाई हैं। पर चढ़ाई में झरनों का संगीत थकान उतारता जाता है। रास्ते भर मंदाकिनी नदी को देखना भी सुखद अचरज है। मन्दाकिनी माने वह जो शिथिलता से बहे। पर पहाड़ों की गहरी घाटियों के मध्य उसकी किलकारियां गूंजती हुई लुभाती है। उसका बहता हुआ नीला रंग और चट्टानों में दौड़ता धवल झाग!

मंदाकिनी ही नहीं सभी नदियां कभी नहीं थकने का मंत्र गाती है। नदी और नृत्य में विरल समानता होती है। दोनों गति में जीवंत होते हैं। नदी का अर्थ ही है, जीवन प्रवाह। अविरल बह वह समुद्र में मिल जाती है। पर रास्ते के गड्ढों को भरती जाती वह अभाव में भी जैसे भाव भरती जाती है।

कहीं पढ़ा हुआ याद आया। सभी नदियां सागर पत्नी हैं। समुद्र का एक नाम सरित्पति है। समुद्र नदियों के कारण ही पवित्र है। इसीलिए तो कहा है, 'सागरे सर्व तीर्थानि'। पहाड़ों में बहती नदी की ध्वनि को सुन किसी ने कहा समुद्र की ओर जाती नदी अपने ससुराल जाते हुए रो रही है। पर, इस रोने में मिलन की सुखानुभूति है। पूर्णता पाने की चाह समाई है। नदी का ब्याह सगोत्र में नहीं होता। दूर वास करने वाले समुद्र से होता है। इसलिए वह भारतीय संस्कृति की सूक्ष्म व्यंजना है। हमारे यहां एक ही गौत्र में विवाह नहीं करने की दृष्टि क्या नदी संस्कृति की सीख ही नही है? पुराने जमाने में राजपुत्र दूर दूर के राजाओं की कन्याओं से ब्याह करते थे। नदियों से सीखी यह संस्कृति ही हमारे जीवन का वैज्ञानिक आधार है।

मंदाकिनी शिव—तीर्थ केदारनाथ की सुगंध है। पुराण कहते हैं, महाभारत युद्ध के बाद पांडवों ने मंदाकिनी घाटी के सामने शिव धाम का निर्माण किया। शिव का कोई रूप—रंग कहां है! रम्य प्रकृति ही शिव का वास्तविक सौंदर्य है। अकेले शिव हैं जो हिमालय पर्वत पर विराजते हैं। शिव का एक नाम व्योम है। माने आकाश। समाधिस्थ चित्त की वह अवस्था जिसमें केवल आंतरिक चेतना का खाली आकाश होता है। जिस भाव रूप में रंगे उसी में शिव शृंगारित हो दर्शन देते हैं। शिव माने प्रकृति का सामीप्य। शिव संस्कृति की प्रकृति है। 

गौरीकुंड से सुबह पग पग चला तो सांझ केदार पहुंचा। दूर ऊपर एक पहाड़ी के टुकड़े पर धवल बर्फ और अस्ताचल होते सूर्य की किरणों से स्वर्णिम होती उसकी आभा पर नजर ठहरी। जैसे प्रकृति ने शिव मंदिर को हीरे, जवाहरात से जड़ मुकुट पहना दिया है। थका थका यह देख रहा था कि औचक हल्की फुहार हुई। कालिदास के मेघदूत की याद आई जहां वह मेघ से संबोधित है, 'तट पर पुष्प वन उगा है, जिसमें परिश्रम क्लांत मालिने फूल चुनती है। उनके मुख और ललाट पर पसीना आता रहता है। थकान से उनके मुख मुरझा जाते हैं। ओ मेघ, तुम उनके चेहरे पर हल्की फुहार देना। उनके मुख कमल अचानक खिल जाएंगे।' केदार पहुंच मुझे लगा शिव ने मेघ से कह हल्की फुहार करवाई है। सोलह किलोमीटर की दुर्गम पर्वत पथ यात्रा की सारी थकान पल में मिट गई। शिव सौंदर्य से नहा उठा कृतज्ञ मन!


Wednesday, November 27, 2024

जल संस्कृति पर मुख्य वक्ता के रूप में व्याख्यान

 मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय में 11—12 नवम्बर 2024 को 'जल संस्कृति और साहित्य' विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया।

विश्वविद्यालय के आग्रह पर 12 नवम्बर को जाना हुआ। समापन सत्र में मुख्य वक्ता के रूप में अपने विचार साझा करते हुए कहा,—'संस्कृति विचार नहीं विश्वास और हमारा आचरण ही तो है। कहें, जीवन जीने का ढंग। जल हमारे शाश्वत जीवन मूल्यों से जुड़ा है। जन्म से मृत्यु तक के तमाम संस्कारों में जल की ही तो अनिवार्यता है! जल शब्द 'जन्म' के ज और 'लय' के ल शब्द से बना है। माने सृष्टि में जीवन और उससे जुड़ी जीवंतता 'लय' का हेतु जल ही है। इसलिए ही कहें, जल है तो जीवन है!'

जल से जुड़ी इस संस्कृति पर और भी बहुत कुछ जो उपजा, साझा किया...











Tuesday, November 26, 2024

तानसेन समारोह शताब्दी वर्ष पर 'संवाद प्रवाह' में व्याख्यान

 तानसेन समारोह की शुरूआत इस बार 22 नवम्बर 2024 को जयपुर के जवाहर कला केन्द्र से हुई। 

प्रतिवर्ष राष्ट्रीय स्तर पर ग्वालियर में आयोजित किए जाने वाले 'तानसेन समारोह' का यह सौंवा वर्ष है। इस अवसर पर राज्यों में भी इसे मनाए जाने की पहल हुई है। इसी कड़ी में जयपुर में तानसेन के संगीत अवदान पर विशेष संवाद प्रवाह का आयोजन हुआ। 

मध्यप्रदेश संस्कृति मंत्रालय और जवाहर कला केन्द्र, जयपुर के आमंत्रण पर संवाद प्रवाह में बोलने जाना हुआ। तानसेन के सांगीतिक अवदान पर अपने विचार रखे—

link :

https://www.youtube.com/live/t6pc_E8Jasw?si=hiLMrgGr6BurvaX7




साहित्य अकादेमी, मुम्बई की वेब शृंखला के अंतर्गत कविता पाठ—

 साहित्य अकादेमी, मुम्बई की वेब शृंखला के अंतर्गत कविता पाठ—




“तानसेन समारोह” शताब्दी वर्ष पर...

राजस्थान पत्रिका, 23 नवम्बर 2024

विश्वभर में प्रतिष्ठित “तानसेन समारोह” का यह शताब्दी वर्ष है। मध्यप्रदेश सरकार ने तानसेन समारोह के सौ वर्ष पूर्ण होने पर ग्वालियर के साथ—साथ देशभर के राज्यों मे इसे मनाने की पहल की है। 

बहरहाल, 'आइने—अकबरी' प्रणेता अबुल फजल ने ठीक ही लिखा है, 'तानसेन के समान गायक विगत सहस्त्र वर्षों में जन्मा ही नहीं।' हमारे यहां इस समय जो शास्त्रीय संगीत है, राग-रागिनियां गाई जाती है, वह तानसेन की ही देन है। प्राचीन संस्कृत ग्रंथो में जो संगीत चर्चा है, उसमें आज का संगीत कहां है! वहां प्रबंध का उल्लेख है। तानसेन ने ध्रुवपद की परम्परा को कंठ—सिद्ध कर उसे लोकप्रिय ही नहीं बनाया बल्कि उसे जीवन से जोड़ा।  एक दौर वह भी आया जब हर कोई अपने बच्चों को तानसेन बनाने का इच्छुक होने लगा था। श्रोता शायद कम होने लगे थे, इसलिए विष्णु दिगंबर पलुस्कर को कहना पड़ा, 'हमें तानसेन नहीं कानसेन बनाने हैं।'

प्रख्यात बंगाली लेखक वीरेन्द्र राय चौधुरी का शोध बताता है, वाराणसी के भावभंगी-गीत गायक मुकुन्दराम पाण्डे के तानसेन पुत्र थे। असल नाम था—रामतनु। ग्वालियर के हजरत गौस मुहम्मद सिद्ध पीर के आशीर्वाद से उनका जन्म हुआ। हजरत मुहम्मद गौस ही उन्हें ग्वालियर दरबार ले गए, उनका विवाह करवाया। विवाह के बाद उनका नाम मुहम्मद अता अली खां भी कहीं—कहीं पढ़ने में आता है। पर यह शायद इसलिए है कि कईं स्थानों पर उनकी संगीत योग्यता को देखते उन्हें 'अताई' लिखा है। संगीत ग्रंथ 'रागदर्पण' में 'अताई' की परिभाषा है—वह जो 'इल्म' यानी विद्या का 'अमल' करना जानता है। 

 तानसेन बचपन से ही किसी भी स्वर को सुनकर हूबहू नकल कर लेते थे। एक दफा स्वामी हरिदास वाराणसी तीर्थ—यात्रा को आए। वह वाराणसी की सीमा पहुंचे तब रामतनु वन में गायें चरा रहा था। अपरिचित सन्यासी और शिष्यों को देखकर उसे विनोद सूझा। उसने वृक्ष के पीछे छिपकर बाघ के समान जोरदार आवाज निकाली। शिष्य भयभीत हो गए। पर हरिदास ने समझ लिया कि वाराणसी में बाघ  नहीं हो सकता। शिष्यों से ढूंढवाया तो वृक्ष की ओट में रामतनु मिल गया। स्वामी हरिदास ने उसके पिता मकरंद पाण्डे से शिष्य रूप में रामतनु को मांग लिया। गुरु हरिदास से वृंदावन में दस वर्ष तक रामतनु ने संगीत की गहन शिक्षा ली। रामतनु नाद—सिद्ध हेतु हुए और बाद में संगीत सम्राट तानसेन कहाए। 

कहते हैं एक बार अकबर के अतिरिक्त आग्रह पर उन्होंने दरबार में दीपक राग गाया। संगीत सभा के चारों ओर दीप सजाए गए। तानसेन ने गाना प्रारंभ किया और उनका बदन जलने लगा। सभा के सारे दीपक जल उठे। दुहिता रूपवती ने इधर घर में मेघ मल्हार गाया। इससे औचक बादलों की घनघोर घटा संग जलधारा बही। इसी से तानसेन का दग्ध शरीर शीतल हुआ। पर इसके बाद वह लम्बे समय तक बिस्तर पर बीमार पड़े रहे। 

उनके गान से जुड़ी बहुत सी अलौकिक गाथाएं और भी है। एक यह भी है, 'भलो भयो जो विधि ना दिये शेषनाग के कान....’ माने यह अच्छा हुआ जो विधाता ने शेषनाग को सुनने की शक्ति नहीं दी अन्यथा तानसेन की तान सुनकर अनन्तनाग सिर हिला देते और मेदिनी यानी यह पृथ्वी ध्वंस हो जाती।  तानसेन नाम की कथा भी कम रोचक नहीं है। कहते हैं, एक दफा तानसेन ने इतना मधुर गाया कि बादशाह इतने विभोर हुआ कि उसने अपने गले का मणि—हार उतारकर उनके गले में पहना दिया। तानसेन माने वह जो संगीत की अपनी 'तान' द्वारा 'सैन' कर दे। यानी हदृय को द्रवीभूत करने की क्षमता रखे। तानसेन ऐसे ही थे। संगीत सम्राट। तानसेन समारोह का 'शताब्दी वर्ष' उनके संगीत अवदान को स्मरण करते भारतीय संगीत को समृद्ध करने का हेतु बने। आमीन!



श्रीगंगानगर में बाल साहित्य पर आयोजित परिसंवाद

साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली के आमंत्रण पर 

श्रीगंगानगर में बाल साहित्य पर आयोजित परिसंवाद में मुख्य अतिथि के रूप में भाग लिया...इस दौरान राजस्थानी की डायरी विधा की पुस्तक 'कथूं—अकथ' का लोकार्पण भी हुआ।







Sunday, November 17, 2024

कला-राग की आभा: रस निरंजन


जानकीपुल-- June 6, 2021 .. 188Comments5 Mins Read

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राजेश कुमार व्यास की किताब ‘रस निरंजन’ समकालीन कला पर लिखे निबंधों का संग्रह है। इस किताब पर यह विस्तृत टिप्पणी लिखी है चंद्र कुमार ने। चंद्र कुमार ने कॉर्नेल विश्वविद्यालय, न्यूयार्क से पढ़ाई की। वे आजकल एक निजी साफ्टवेयर कंपनी में निदेशक है लेकिन उनका पहला प्यार सम-सामयिक विषयों पर पठन-लेखन है-

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कलाएँ वैसे अपने अर्थ का आग्रह नहीं करती, बस अपने होने के चिन्ह छोड़ती हैं। उन चिन्हों से पाठक-दर्शक-श्रोता अपने लिये जो ग्रहण कर सके, वही कलाओं का उद्देश्य है। इसीलिये प्रयाग शुक्ल कहते हैं कि कलाओं को देखना भी एक कला है। इस देखने-महसूस कर सकने में अक्सर कला-आलोचक, कला और रसिकों के मध्य एक सेतु का काम करते हैं। कला वस्तुत: अनंत के विस्तार की यात्रा होती है। इस निरंजन यात्रा में कोई सहचर अगर सहजता से रास्ता बताता चले, तो यात्रा का आनन्द असीमित हो सकता है। विभिन्न कलाओं को समदृष्टि से कला-रसिकों के लिये व्याख्यायित करना दरअसल कला को ही समृद्ध करना है। इस लिहाज़ से कला-आलोचक डॉ. राजेश कुमार व्यास का कलाओं पर एकाग्र — ‘रस निरंजन’ उनकी कला लेखन की यात्रा का ऐसा पड़ाव है जिस पर बरबस ही ध्यान जाता है।

मूलत: उनका लेखकीय सफ़र एक साँस्कृतिक रिपोर्टर के रूप में शुरू हुआ जो नाट्य, संगीत, चित्रकला, संस्थापन कला और सिनेमा से होते हुए यहाँ तक पहुँचा है जहाँ वो कला के समग्र रूपों के एक वाचक के रूप में हमसे मुख़ातिब होते हैं। कहन के अन्दाज़ में लिखते हुए वे कला के विभिन्न रूपों से हमें परिचित करवाते हैं। उनके भीतर के यायावर ने उन्हें एक अलग तरह के कला-आलोचक के रूप में स्थापित करने में महत्ती भूमिका निभाई है। यायावर कहीं देर तक नहीं ठहरता लेकिन जहाँ है, वहाँ पूरी शिद्दत से वह सब कुछ देख-समझ लेता है जिसे फिर बाद में वह जब चाहे, उसी शिद्दत से महसूस कर सकेगा। उनका कला-लेखन शास्त्रीय तो है पर जड़ता लिये नहीं है। वे मूलत: भारतीय दृष्टि से कला आलोचना करते हैं लेकिन ज़रूरत पड़ने पर पश्चिमी दृष्टि और विचारकों के हवालों से अपनी बात के मर्म को समझाने में भी संकोच नहीं करते। जब वे ऐसा करते हैं तो यह स्वत:-स्फूर्त होता है, न कि कोई थोपा हुआ उदाहरण।

शास्त्रीय गायन पर इत्मिनान से लिखने वाला कब ग़ज़ल (जगजीत सिंह), भजन (हरिओम शरण) और लोक-गायकी के रंग से सराबोर रेशमा तक पर सहजता से

अपनी बात कह जाता है, अचंभित करता है। इसी तरह संगीत के साथ ही नाट्य-कला, चित्रकला, फ़ोटोग्राफ़ी, संस्थापन कला, नृत्य कला इत्यादि कला के विभिन्न अनुशासनों में वे जिस प्रकार सहजता से उन कलाओं का शाब्दिक चित्रण करते हैं वह पाठकों को कला जगत के विभिन्न आयामों को आत्मसात् करने में सहायक है। दरअसल, कला के विभिन्न अनुशासनों का अनवरत अनुशीलन उन्हें इस मुक़ाम पर ले आया है जहाँ वो इन कला रूपों पर सहजता से लिखते-बोलते हैं। उनका कला-आस्वादन, एक कला-रसिक के रूप में उनके निबंधों में भाषिक रूप में उतरता है। वह पाठक को इतनी सहजता से कला के सूक्ष्म विश्लेषण तक ले जाता है जहाँ कला से प्राप्त आनन्द लेखक और पाठक एकसार ग्रहण करते हैं। रस निरंजन में यह आनन्द पाठकों को हर आलेख में महसूस होता है।

एकाग्र की सहज और सुरुचिपूर्ण भाषा व छोटे लेकिन सारगर्भित निबन्ध पाठकों के सामने विहंगम कला-संसार के भीतर पहुँचने के द्वार-सा कार्य करते हैं। रस निरंजन को पढ़ते हुए पाठकों को प्रस्तुत कला-रूप के सूक्ष्म विश्लेषण के बावजूद किसी तरह का भाषाई आडम्बर नहीं दिखता। एकाग्र में संचयित निबंध विभिन्न कला-रूपों, कला-साधकों और कला की दुनिया के अनजाने स्वरूपों को पाठकों के सामने खोलते हैं लेकिन इन निबंधों में एक अन्त:कथा है जो इन स्वतंत्र निबंधों को एक सूत्र में पिरो कर रखती है। यह अन्त:कथा दरअसल विभिन्न कला-रूपों के ज़रिये आस्वादन और अन्तत: भीतर के तम को उजास देने वाला वह प्रकाश है जो हर कला का अन्तिम उद्देश्य होता है। देशज भाषा का स्वच्छंद उपयोग, कलाओं में लोक का सतत् स्पंदन और कलाओं के अन्त:सम्बन्धों का सहज विश्लेषण इस एकाग्र को सिलसिलेवार पढ़ने हेतु प्रेरित करता है।

लेखक कलाकार की विराटता से नहीं, बल्कि उसके कला-कर्म के बारीक विश्लेषण से जो कला-दृश्य हमारे सामने रखता है वहीं इस एकाग्र की विशेषता है। इस छोटी सी पुस्तक में समकालीन भारतीय कला के सुपरिचित साधकों के कला-कर्म पर आलेख मिलेंगे। कला-लेखन के साथ ही कला-रसिकों और विद्यार्थियों को इस पुस्तक से भारतीय कला की विराट छवि अपने सूक्ष्मतम विश्लेषण के साथ, सहज भाषा में प्राप्त होगी। प्रेरणा श्रीमाली के नृत्य पर डॉ. राजेश कुमार व्यास का कथन है कि उनका नृत्य मौलिक है, वह पारम्परिक होते हुए भी जड़त्व धारण नहीं करता, नृत्य में शास्त्रीयता है लेकिन वह दुरूह नहीं। यही बात स्वयं डॉ. व्यास के कला-लेखन के लिये भी कही जा सकती है। उनकी कला-दृष्टि, भाषिक सहजता और भावपूर्ण संप्रेषण उनकी भाषा की शास्त्रीयता को बचाये रखते हुए भी उसे अकादमिक और क्लिष्ट नहीं होने देते। वह कलाओं का आस्वादन करते हुए पाठकों के साथ आनन्द की अनुभूति साझा करते है।चार खण्डों में समायोजित इक्कतीस निबन्धों में लेखक ने समकालीन भारतीय कला का पूरा दृश्य पेश किया है जिसे बोधि प्रकाशन, जयपुर ने ‘बोधि पुस्तक पर्व’ के पाँचवें बँध के रूप में नौ अन्य पुस्तकों के साथ प्रकाशित किया है। दस पुस्तकों का यह सैट मात्र सौ रुपयों में पाठकों के लिये उपलब्ध है।

~ चंद्रकुमार

पुस्तक: रस निरंजन

लेखक: डॉ. राजेश कुमार व्यास

प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, जयपुर

पृष्ठ: 96

प्रकाशन वर्ष: दिसम्बर 2020

मूल्य: 10/- (पूरा सैट – 100/-)


 




Friday, November 15, 2024

'कथूं—अकथ' माने 'कहता हूं, वह जो अनकहा है...

'देव दीपावली' पर 'कथूं—अकथ' माने 'कहता हूं, वह जो अनकहा है'
बचपन से ही डायरी लिखता आ रहा हूं—कभी सहज हिंदी में लिखता हूं तो कभी अनायास अपनी मातृभाषा राजस्थानी में शब्द झरते हैं। 
यह साहित्य और संस्कृति से सरोकारों की मेरी अनुभूतियों का लोक—आलोक है। 
चिंतन—मनन भी इसमें है। 
बहुत सारी बातें—यादें...
"बोधि प्रकाशन" ने इसे प्रकाशित किया है--


Monday, November 11, 2024

सौरंगी सारंगी के पंडित रामनारायण जी का बिछोह

अमर उजाला, रविवारीय में..

पंडित रामनारायण जी का सान्निध्य निरंतर मिलता रहा।  उनसे जुड़ी बहुत सी यादें—बातें हैं। उनके बिछोह के साथ ही सारंगी के भारतीय युग का अवसान हो चला है। मुझे लगता है, यह पंडित रामनारायणजी ही थे जिन्होंने सारंगी के सौ रंगों का सार समझाया। सारंगी का विरल माधुर्य रचते इसे जन— मन से जोड़ा। ...

अमर उजाला, 10 नवम्बर 2024


संस्कृति का उजास

पत्रिका, 9 नवम्बर 2024

भारतीय संस्कृति पर्वों में गूंथी है। गहरे और गूढ़ अर्थ इनमें समाए हैं। हिंदू कैलेंडर पृथ्वी से दिखने वाले चंद्रमा और सूर्य की गतिविधियों पर केन्द्रित है। हर मास का अपना अध्यात्म संस्कार है।परन्तु इनमें विज्ञान के संस्कार भी समाहित है। कार्तिक दामोदर मास है। दाम’ माने रस्सी और ‘उदर’यानी पेट। दामोदरष्टकम मे आता है, दधिभाण्ड फोड़ने के कारण माँ यशोदा के डर से कृष्ण ऊखल से दूर दौड़ रहे हैं। पर माँ यशोदा ने उनसे तेज दौड़कर उन्हें पकड़ ऊखल से बाँध दिया। ऐसे दामोदर भगवान को मैं प्रणाम करता हूं।

विष्णुसहस्रनाम में यह भगवान विष्णु का 367वाँ नाम है। दामोदर माने वह जिसके हृदय में ब्रह्माण्ड बसता है। कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा से पूर्णिमा तक नदी स्नान अथवा घर में ही जल्दी उठ पवित्र नदियों के ध्यान—ज्ञान, दीपदान का महत्व है। ज्योतिष—विज्ञान कहता है, इस माह सभी को प्रकाश देने वाले सूर्य अपनी नीच राशि तुला में रहते हैं। इससे प्रकाश का क्षय हो नकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है। दीपक जलाने और ध्यान—ज्ञान से सर्वत्र सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। आयुर्वेद के अनुसार इस समय वायु की रुक्षता कम हो जाती है। चन्द्रमा का बल बढ़ जाता है। चन्द्र की सौम्य एवं स्निग्ध किरणों का जल शरीर—अंग प्रवाह सुधारकर मन को उमंग से भरता है। चरक संहिता में कार्तिक मास के इस जल को "हंसोदक" माने अमृत समान माना गया है। ब्रह्म मुहूर्त में कार्तिक माह में स्नान का यही रहस्य है।

कार्तिक पूर्णिमा भी तो महाकार्तिकी है। इसी दिन भगवान शिव ने त्रिपुरासर का वध किया। त्रिपुरासर ने तीनों लोकों में त्राही त्राही मचा रखी थी। पुराण कथाओं मे आता है, भगवान शिव ने असंभव रथ पर सवार हो त्रिपुरासर का वध किया। सूर्य—चंद्र इसके पहिए थे। सृष्टा सारथी बने। श्रीहरि बाण और अग्नि नोक बनी।

वासुकी धनुष की डोर, और मेरूपर्वत धनुष बने थे। इंद्र, वरुण, यम, और कुबेर जैसे लोकपाल इस रथ के घोड़े बने। तमिल साहित्य में आता है,युद्धक्षेत्र में ब्रह्मा और विष्णु भी कुछ नहीं कर पा रहे थे। तब एक क्षण आया जब त्रिपुर यानी तीनों किले एक सीध में आ गए। शिव मुस्कुराए और किले जलकर राख हो गए। तमिल में शिव को  "सिरिथु पुरामेरिता पेरुमन" कहा गया है। वह जिसकी मुस्कुराहट मात्र से त्रिपुरासर जलकर खाक हो गया। त्रिपुर दाह पर देवताओं ने शिव की नगरी काशी पहुंच दीप जलाए। यही देव—दीपावली कहलाई।

सिखों के पहले गुरु नानक देव जी का जन्म भी कार्तिक पुर्णिमा पर हुआ। इसलिए यह दिन प्रकाश पर्व कहा गया। कार्तिक पूर्णिमा पर ही भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार ले हयग्रीव का वध किया। कथा आती है, सृष्टि रचयिता ब्रह्मा के निद्रामग्न होने पर हयग्रीवासुर वेदों को चुरा समुद्र में ले गया। सृष्टि अज्ञान के अंधकार में डूब गई। नारायण ने तब मत्स्य रूप धारण कर उसका वध किया। वेदों को मुक्त कराया। इसी अवतार में उन्होंने जल प्रलय से भी पृथ्वी को बचाया। वह मछली बन संसार के प्रथम पुरुष मनु के कमंडल में आए और उनसे संसार को बचाने के लिए बड़ी नाव का निर्माण करने को कहा। इस नाव पर सवार होकर ही बाद में मनु सप्त ऋषियों, बीजों, पशु-पक्षियों के जोड़ों संग सुरक्षित हुए। भगवान विष्णु ने बड़ी मछली बनकर मनु की बनाई नाव के निकट आकर वासुकि नाग की रस्सी से जल प्रलय से उन्हें बाहर सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया। तो कहें, भारतीय संस्कृति का उजास लिए है कार्तिक मास।


Tuesday, November 5, 2024

नाद—ब्रह्म है-डागर वाणी

 दैनिक जागरण—सोमवार,'सप्तरंग' में ...

"...डागर वाणी नहीं नाद—ब्रह्म है। ध्रुवपद का स्वर—लालित्य। इसमें जड़त्व नहीं है। गोपाल दास के पुत्र इमाम बख्श के पुत्र बाबा बहराम खान ने डागर वाणी में आलापचारी को अपने ढंग से निरूपित ही नहीं किया बल्कि ध्रुवपद का नवीन वह व्याकरण भी बनाया जिससे यह संगीत माधुर्य में और अधिक जीवंत हुआ। उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर को निरंतर सुना है और पाया है, वह नाद ब्रह्म से साक्षात् कराते..."

दैनिक जागरण, 4 नवम्बर 2024


Saturday, October 19, 2024

आलोक छुए अपनेपन के रुद्र वीणा स्वर


ध्रुवपद भारतीय संगीत—संस्कृति का अभिज्ञान है। अभिज्ञान माने संगीत की हमारी परम्परा की पहचान। जयपुर ध्रुवपद का तीर्थ—स्थल है। यहीं डागर घराने के पितामह बाबा बेहराम खान की चौखट है। कभी यहां अखिल भारतीय ध्रुवपद समारोह होता रहा है। यह आयोजन तो इस समय नहीं होता परन्तु संस्कृतिकर्मी इकबाल खान की पहल पर कुछ दिन पहले जवाहर कला केन्द्र में दो दिवसीय ध्रुवपद उत्सव हुआ। गायन—वादन प्रस्तुतियों के साथ ही इसमें ध्रुवपद पर संवाद भी हुआ।  विश्वप्रसिद्ध रुद्र वीणा वादक ज्योति हेगड़े को सुनने, बतियाने का भी इस दौरान संयोग हुआ। अरसा पहले उनकी वीणा सुनी थी। फिर से सुना तो लगा, तार वाद्य में नाद—ब्रह्म से साक्षात् हुआ है। 

रुद्र वीणा माने शिव का वाद्य। आदि ध्वनि से जुड़ी है- रुद्र वीणा। शिव समय को संबोधित हैं। महाकाल माने उत्पत्ति, स्थिति और लय के अधिपति। कथा आती है, मां पार्वती सो रही थी। शिव ने उन्हें वक्ष स्थल पर हाथ रखकर लेटे देखा। जगत जननी की चढ़ती—उतरती सांस और लेटने की मुद्रा के पवित्र सौंदर्य पर रीझते उन्होंने रुद्र वीणा का आविष्कार कर दिया। शिव का यह प्रिय वाद्य है। कल्पना करता हूं, भगवान शिव रुद्र वीणा बजाते हैं और इसमें निहित ब्रह्मांडीय कंपन और दिव्य लय में इसका जैसे सार समझाते हैं। रुद्र वीणा में वह पारलौकिक ध्वनियों के जरिए ही सृजन, स्थिति और संहार को प्रतिध्वनित करते हैं। 

उस दौर में जब रुद्र वीणा महिलाओं के लिए सर्वथा त्याज्य था, ज्योति हेगड़े ने इसी में अपने को साधा। आरंभ में वह गुरु बिन्दु माधव माधव से सितार सीखती थी। एक रोज़ उन्हें रूद्रवीणा बजाते सुना। वीणा के तार से उनका मन इस कदर झंकृत हुआ कि उन्होंने इसे सीखने का निर्णय कर लिया। गुरु ने मना कर दिया। कहा, लड़कियों के लिए यह नहीं है। इसमें अतिरिक्त ताकत की जरूरत पड़ती है। ज्योति ने जिद पकड़ ली तो उन्होंने एक पुरानी न बज सकने वाली रुद्र वीणा परीक्षण के लिए दी। वह लगातार बारह घंटे इसे बजाती रही। घर वालो ने कहा, ग्रामोफोन की सुई अटक गई है। उनकी मां ने जब थॉमस की 'द वे म्यूजिक' में रुद्र वीणा के संबंध में यह लिखा हुआ पढ़ा-सुना कि इसे बजाने वाली महिला कभी मां नहीं बन सकती तो उन्होंने भी मना किया। पर ऐसे अंधविश्वासों को धता बताते ज्योति हेगड़े ने रुद्र वीणा सीखी। अंतर के उजास में ध्रुवपद की खंडार वाणी में इसकी साधना की।   फिर तो वीणा के उनके तार कुछ इस कदर सधे कि विश्वभर में विरल रुद्र वीणा वादक के रूप में ख्यात हुई। 

ज्योति हेगड़े रुद्र वीणा में होले—होले स्वरों की बढ़त करते एक मीठी सी अनूगूंज मन में पैदा करती है। अध्यात्म की गहराईयों में ले जाते आलाप के साथ निचले सप्तक में सुरों का प्रवाह! लयबद्धता संग जोड़़ और फिर झाला। संगीत के विरल ध्यान में डूबाते हैं, रुद्र वीणा के उनके स्वर! उनका वादन नाद—ब्रह्म से साक्षात् है। हठयोग प्रदीपिका में आता है, एकाग्र मन से नाद का अन्वेषण ही योग है। ज्योति हेगड़े यही कराती है। संगीत में ध्यान का योग। राग गुजरी तोड़ी, राग ललित, राग मधुवंती, राग चन्द्रकौन्स और भी दूसरे रागों में उन्हें सुनेंगे तो लगेगा ध्वनियों के जरिए अंतर्मन सौंदर्य को हमने पा लिया है। राग पूर्वी में उन्हें कभी सुना था। पूर्वी थाट के इस मौलिक राग को सुनते अनुभूत हुआ, सूर्यास्त के समय नटराज कैलाश पर नृत्यरत हैं। ध्यान से जुड़ी ध्वनि मे ज्ञान के परम आनंद का अवगाहन कराते रुद्र वीणा के स्वरों का वह उजास मन में अभी भी बसा है। ज्योति हेगड़े की रुद्र वीणा के स्वर ऐसे ही हैं, शिवत्व से साक्षात् कराते। योग संग ज्ञान का आलोक छुआ अपनापन वहां है।


Tuesday, October 8, 2024

प्रकृति की अनुगूंज है राग नट भैरव

 राग 'नट भैरव' पर 'दैनिक जागरण' सप्तरंग, 6 अक्टूबर 2024 में...

दैनिक जागरण - 6 अक्टूबर 2024




ध्रुवपद उत्सव

 जवाहर कला केन्द्र के आग्रह पर 5 अक्टूबर 2024 को ध्रुवपद उत्सव में बोलने जाना हुआ...

सुखद लगा, देश की ख्यातनाम रूद्रवीणा वादक ज्योति हेगड़े संग बतियाना हुआ।  उन्हें सुनता रहा हूं, रूद्रवीणा की वह इस दौर की विरल साधिका है। 

सुप्रसिद्ध सुरबहार साधक पं० पुष्पराज कोष्टी का भी सान्निध्य संपन्न करने वाला था...







Saturday, October 5, 2024

शक्ति की आराधना से जुड़ी संस्कृति

 

पत्रिका, 5 अक्टूबर, 2024

भारतीय संस्कृति समग्रता में शिव और शक्ति में समाई है। ​शिव स्रोत हैं, शक्ति गति। शिव निर्गुण, निराकार ब्रह्म है। शक्ति उसकी अभिव्यक्ति। बांग्ला कवि कृत्तिवास रचित रामायण में राम रावण को हराने इन्हीं दिनों शक्ति पूजा करते है। 

बंग्ला में यह नवरात्रा अकाल बोधन है। माने असमय पूजा।  कथा आती है, देवी अम्बिका रावण के साथ थी इसलिए राम उसे हरा नहीं पा रहे थे। राम ने 108 नील-कमल से देवी आराधना प्रारंभ की। राम एक—एक कर फूल चढाने लगे कि देवी ने परीक्षा ली। एक कमल कम पड़ गया। राम को याद आया, उनकी मां उन्हें कमल नयन कहती थी। उन्होंने अपनी आंखे निकाल देवी को भेंट करना चाहा। देवी प्रकट हुईं और उन्हें रावण को मारने की शक्ति प्रदान की।

हमारी संस्कृति इसी तरह शक्ति—रूप में प्रतीक धर्मी है।​ ​शिव देवों के देव महादेव क्यों हैं? इसलिए कि अकेले वह हैं, जिन्होंने शक्ति को अपने समान, बल्कि अपने से भी अधिक सम्मान दिया। भृंगी उनके बहुत बड़े भक्त हुए। शिव को मानते थे, शक्ति को नहीं। एक बार शिव परिक्रमा करने कैलाश गये। देखा, मां पार्वती निकट बैठी है। उन्होंने प्रदक्षिणा करने बीच से गुज़रने की कोशिश की। शक्ति शिव के वामांग पर विराज गई। 

भृंगी ने सर्प रुप धारण कर बीच से निकलने का यत्न किया। शिव अर्द्धनारीश्वर हो गए। दाहिने भाग से पुरुष और बाएं भाग से स्त्रीरूप। भृंगी कहां माने? उसने चूहे रुप में मां पार्वती को विलग करना चाहा। क्रोधित हो मां ने शाप द‍िया। तू मातृशक्ति को नहीं मान रहा। जा इसी समय तेरे शरीर से तेरी माता का अंश अलग हो जाए। तंत्र विज्ञान कहता है, शरीर में हड्डियां और पेशियां पिता से और रक्त-मांस माता से प्राप्त होता है। शाप से भृंगी के शरीर से रक्त और मांस गिरने लगा। अविमुक्त कैलाश में मृत्यु तो हो नहीं सकती थी। असह्य पीड़ा में क्षमा मांगी। शिव—शक्ति ने भृंगी को अपने गणों में प्रमुख स्थान दे तीसरा पैर दिया। इसी से अपने भार को संभाल वह शिव-पार्वती संग चलते हैं। आरती में हम गाते भी तो हैं, नंदी-भृंगी नृत्य करत हैं...।

नवरात्र दुर्गा पर्व है। दुर्गा शब्द भी तो दुर्ग से बना है। माने जिसे जीता नहीं जा सकता। 

भवानी अष्टकम् में आदि शंकराचार्य लिखते है, 'गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।'  माने मां मेरी शरण- गति आप ही हैं। कहते हैं, शंकराचार्य जब कश्मीर पहुंचे तो एक दफा भूख प्यास से शक्तिहीन हो गए। निकट से एक महिला निकली। उन्होंने पानी पिलाने का आग्रह किया। महिला ने कहा, पुत्र पास आकर पी लो। वह बोले, मां मैं शक्तिहीन हूं। मुस्कराते हुए उसने कहा,  शिव को मानते हो तो शक्ति की क्या जरूरत? शंकराचार्य को आदि शक्ति का भान हुआ। उन्होंने वहीं आराधना की। कहा, चराचर जगत को चलाने वाला कोई और नहीं आद्याशक्ति है।

शिव पूर्ण पुरुष है। इसलिए कि वह शक्ति को धारण किए हैं। शक्ति माने प्रकृति। मातृ शक्ति इसीलिए वंदनीय है​ कि वह अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीती है। 

पंडित विद्यानिवास मिश्र लिखते हैं, नदी ऊंचाइयों का मोह त्याग ढ़लान की ओर बहती है। उसी तरह मां धीरे धीरे अपने पिता, पति से संतान की ओर अभिमुख होती, उसी के सुख के लिए जीती है। इसमें ही अपनी संपूर्ण सार्थकता पाती है। जननी कौन? वही जो जने को प्यार करें। जब तक जननी है—प्यार, नेह का भाव भी बना रहेगा। नवरात्रि नौ ​देवियों की आराधना का नहीं, मातृ—शक्ति के वंदन—अभिंनदन का पर्व है।

Saturday, September 21, 2024

नृत्य में लालित्य की भारतीय दृष्टि

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राजस्थान पत्रिका, 21 सितम्बर 2024

..इस 26 सितम्बर को उदय शंकर का हमसे बिछोह हुए 47 साल हो जाएंगे पर उनका नृत्य और प्रयोगधर्मिता विश्वभर में आज भी जीवंत है। असल में नृत्य देह का राग है। ऐसा जो मन को रंग दे। उदय शंकर का नृत्य ऐसा ही था। उन्होंने कलाओं के अंत:सबंधों का नृत्य लालित्य रचा।

...यह मान लिया गया है कि परम्परागत जो हॅै, उसका कुशलता से निर्वहन ही नृत्य निपुणता है। पर उदय शंकर ने इस मिथक को तोड़ा। बैले, भरतनाट्यम, कथकली, कथक, ओडिसी, गवरी आदि नृत्यों के घोल में उन्होंने नृत्य की अनूठी भारतीयता रची।...एलिस बोनर ने उनका नृत्य देखा तो बस देखती ही रह गई।

अन्ना पावालोवा ने उन्हें एक दफा देखा, पाया अजंता के किसी देवता ने मानव शरीर धारण कर लिया है। मूलत: उदय शंकर चित्रकार थे, अन्ना पावालोवा के साथ पहली बार राधा—कृष्ण बैले में कृष्ण बने तो बस नर्तक ही बनकर रह गए।

अमला शंकर ने उनके नृत्य पर मोहित होकर ही उनसे विवाह किया। उदयशंकर—अमला की विश्व की बेहतरीन 'कल्पना' फिल्म भी आई। यह सुमित्रानंदन पंत के कथ्य—काव्य पर आधारित थी...

Sunday, September 8, 2024

'चिनार पुस्तक महोत्सव

'अमर उजाला' में...

कुछ दिन पहले श्रीनगर जाना हुआ था। 'चिनार पुस्तक महोत्सव' के एक सत्र 'पुस्तकें, पाठक और जीवन' पर बोलने के लिए। पत्रकार कंकणा लोहिया से जब संवाद कर रहा था, कश्मीर भ्रमण और वहां बिताए दिनों से जुड़ी कहानियों को लेकर युवाओं में विशेष आकर्षण पाया। सत्र के बाद युवाओं ने बड़ी संख्या में प्रश्न किए। मूल प्रश्न इस बात के इर्द—गिर्द थे कि लिखें कैसे? अभिव्यक्ति के रास्ते कैसे खुले? अपनी ओर से इनका समाधान किया परन्तु निरंतर मन में यह अनुभूत भी होता रहा कि कश्मीर में बदलाव आ रहा है। अभिव्यक्ति के बहाने युवा जीवन की नई राहों की ओर प्रस्थान करने को उत्सुक हैं।...
अमर उजाला, 8 सितम्बर 2024


गान का माधुर्य आगरा घराना

 "दैनिक जागरण" सोमवार के "सप्तरंग" में...

"...ख्याल क्या है? कल्पना में गूंथी दृष्टि ही तो! पर ख्याल गायकी और ध्रुवपद के मेल से गान का माधुर्य रस कहीं छलकता है तो वह आगरा घराना है... उस्ताद वसीम खान को ही सुन लें। लगेगा तानों के अनूठेपन में स्वरों की अनंत शक्ति, सौंदर्य उजास से वह जैसे साक्षात् कराते हैं...

दैनिक जागरण, 19 अगस्त 2024



Saturday, September 7, 2024

दृश्य के पार अदृश्य का मनोरम रचते हालोई

पत्रिका, 24 अगस्त 2024

बंगाल कलाओं की उर्वर भूमि है। यहीं से ब्रिटिश राज में भारतीय कला की आधुनिक दृष्टि 'बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट' का प्रसार हुआ। अवनीन्द्रनाथ ठाकुर इसके प्रवर्तक थे।अबन ठाकुरके रूप में उनका बाल साहित्य भी तो बंग्ला साहित्य की अनुपम धरोहर है! उनकी कलाकृतियों में बरते रंगों में भी सदा किसी मासूम बच्चे की सी खिलखिलाहट अनुभूत की है। यह महज संयोग ही नहीं है कि यही खिलखिलाहट अमूर्तन में कला की इस दौर की भाषा रचने वाले गणेश हालोई के चित्रों में भी है। वह भी बंगाल के ही हैं।

कुछ समय पहले कोलकाता जाना हुआ तो उनके निवास स्थान जाने का भी संयोग हुआ। प्रयाग शुक्ल जी और कलाकार यूसुफ के संग उनसे बतियाना हुआ। लगा किसी संत से भेंट हो रही है। सहज, शांत और निश्छल व्यक्त्तिव! उनकी कलाकृतियों में भी यही सबसमाया है। कला की परिपक्वता पर दृश्य का अनूठा अबोधपन! अमूर्तता पर उसको समझने की जटिलता नहीं। सीधी, वक्र, लहरदार रेखाएं पर उनमें समाई अनूठी लय। जितना दृश्य का मनोरम वहां है, उतना ही अदृश्य की एकरसता भंग करने वाली साधना भी।

गणेश हालोई न्यूनतम रेखाओं में छवियों का आकाश रचते हैं। वह कहते भी हैं, 'अमूर्ततता ही सुंदर होती है। वास्तविकता दम घोंटने वाली होती है।' सत्तर के दशक में उन्होंने 'मेटास्केप' चित्र शृंखला सिरजी थी। मुझे लगता है यह यथार्थ से बिम्ब, प्रतीकों और भावों की ओर उनका कलाप्रस्थान था। कभी उन्होंने अजंता में रहकर भित्ति चित्रों की प्रतिकृतियां बनाई थी। पर अचरज होता है, उनके सिरजे में भारतीय कला की वह सुगंध तो है पर उसका अनुकरण नहीं है। सूफियाना फक्कड़पन वहां है। कैनवस और कागज पर उन्होंने धान के खेत, घास के मैदान, रहस्यमय नदियां, पहाड़, गुफाओं और जीवन से जुड़ी कहानियां सिरजी है। बंग्ला कवि जीवनानंद दास की कविताओं के तत्वों को भी उन्होंने अपनी कलाकृतियों में जीवंत किया है। बंगाल की भूमि और उसकी जलवायु को रंगों की सतहों संग क्षणभंगुर ब्योरों में उन्होंने सहज ही कैनवस पर उकेरा है। धूप, हवा, बहती नदी, सूरज की किरणें, बरसते बादल, बरखा की बूंदे और पलपल बदलता मौसम और इनसबमें घुलती और औचक लोप होती सी मानवीय आकृतियां भी। उनके घर पर जब बैठे बतिया रहे थे, उनने कहा, 'चित्रकला समझ से प्रारंभ होती है और आश्चर्य पर समाप्त होती है।' उनकी कलाकृतियों का सच यही है।

अपनी कलाकृतियां  दिखाते, कविताएं सुनाते कोई दिखावा, प्रदर्शन नहीं। प्राय: ऐसा नहीं करता पर मैं अपने को रोक नहीं पाता और वहीं किताबों के पास पड़े एक आमंत्रण पत्र को उठा लेता हूं। उन्हें सौंपते हुए ऑटोग्राफ देने का आग्रह है । निश्छल मुस्कान संग वह वह पैन से कुछ बनाने लगते हैं। तीन छोटी खड़ी रेखाएं, उनसे निकली कुछ टहनियां सी, जल का आभास कराती लहरदार रेखाएं, टेढ़ी और उन्हें क्रॉस करती और दो रेखाएंपक्षी का अहसास कराती एक आकृति और किनारे जल किनारे टापू सा बना कुछ! ठीक से वर्णित नहीं कर सकते, क्या बना है, पर मनोरम। वह हस्ताक्षर करते हैं और मेरा नाम लिखकर सौंप देते हैं।

अनुभूत करता हूं, गणेश हालोई दृश्य के पार जाते हैं। अंतर्मन उजास में अनुभूतियों का विरल रचते हैं। प्रकृति की लय का जैसे सांगीतिक छंद। हरे, नीले, पीले और धूसर में उन्होंने संवेदनाओं का उजास उकेरा है। रोशनी और अंधेरा पर स्पेस का अद्भुत विभाजन! भले ही उनके चित्र अमूर्त हैं, पर वहां दृश्य की सुगंध इस कदर समाई है कि बारबार रिझाती वह अपने पास बुलाती है।